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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-परपरिवाद पाप स्थानक द्वार
किसी योग्य समय पर सुबंधु मंत्री ने राजा से चाणक्य के महल को रहने के लिए देने की प्रार्थना की, अतः राजा की आज्ञा से वह चाणक्य के घर गया और वहाँ मजबूत बंद किये प्रपंचवाले दरवाजे तथा गंधयुक्त कमरे को देखा 'सारा धन समूह यहीं होगा' ऐसा मानकर दरवाजे खोलकर पेटी बाहर निकाली, उसके बाद जब चूर्ण को सूंघा और लिखा हुआ भोजपत्र को देखा, उसका अर्थ भी सम्यग् रूप से जाना, तब उसके निर्णय के लिए एक पुरुष को वह चूर्ण सँघाया और उसने विषयों का भोग किया, उसी समय वह मर गया। इस तरह अन्य भी विशिष्ट वस्तुओं में निर्णय किया। तब अरे! मरते हुए भी उसने मुझे भी मार दिया। इस तरह दुःख से पीड़ित जीने की इच्छा करता वह रंक उत्तम मुनि के समान भोगादि का त्यागकर रहने लगा। इस तरह ऐसे दोष वाले पैशुन्य-चुगलखोर को और ऐसे गुणवाले उसके त्याग को जानकर हे क्षपक मुनि! आराधना के चित्त वाले तूं उस पैशुन्य को मन में नहीं रखना। इस तरह पन्द्रहवाँ पाप स्थानक कहा है, अब परपरिवाद नामक सौलहवाँ पाप स्थानक को संक्षेप में कहते हैं ।।६३७६ ।।
(१६) परपरिवाद पाप स्थानक द्वार :- यहाँ लोगों के समक्ष ही जो अन्य के दोषों को कहा जाता है उसे परपरिवाद कहते हैं। वह मत्सर (ईर्ष्या) से और अपने उत्कर्ष से प्रकट होता है। क्योंकि मत्सर के कारण, स्नेह को, अपनी स्वीकार की प्रतिज्ञा को, दूसरे के किये उपकार को, परिचय को, दाक्षिण्यता को, सज्जनता को, स्वपर योग्यता के भेद को, कुलक्रम को और धर्म स्थिति को भी वह नहीं गिनता है, केवल हमेशा वह दूसरा कैसे चलता है? कैसा व्यवहार करता है? क्या विचार करता है? क्या बोलता है? अथवा क्या करता है? इस तरह पर के छिद्र देखने के मन वाला सख का अनुभव नहीं करता है, परंत केवल दःखी होता है। इस क्रम से परपरिवाद करने में एक मत्सर का ही महान कारण बनता है। फिर वह आत्मोत्कर्ष के साथ मिल जाय तो पूछना ही क्या? आत्मोत्कर्ष वाला मेरु पर्वत के समान महान आत्मा को भी अति छोटा और स्वयं तृण के समान तुच्छ होने पर भी अपने को मेरु पर्वत से भी महान मानता है। इस प्रकार मत्सर आदि प्रौढ़ कारण से परपरिवाद अकार्य को रोकने में शक्तिमान भी अविवेकी मनुष्य किस तरह शक्तिमान हो सकता है? मनुष्य जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे नीचता को प्राप्त करता है और जैसे-जैसे नीचता को प्राप्त करता है वैसे-वैसे अपूज्य-तिरस्कार पात्र बनता है। जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है, जैसे-जैसे वह गुणों का नाश करता है वैसे-वैसे दोषों का आगमन होता है और जैसे-जैसे दोषों का संक्रमण होता है वैसे-वैसे मनुष्य निंदा का पात्र बनता है। इस तरह परपरिवाद अनर्थ-अमंगल का मुख्य कारण है। परपरिवाद करने वाले मनुष्य में दोष न हो तो भी दोषों का प्रवेश होता है और यदि हो तो वह बहुत, बहुतर और बहुतम मजबूत स्थिर होते हैं। जो मनुष्य दूसरों के प्रति मत्सर और अपने उत्कर्ष से परनिंदा करता है वह अन्य जन्मों में भी चिरकाल तक हल्की योनियों में परिभ्रमण करता है।
धन्य पुरुष गुण रत्नों को हरने वाले और दोषों को करने वाले परपरिवाद को जानकर परनिंदा नहीं करते हैं। क्योंकि श्री जिनेश्वरों ने तंदुलवेयालिय ग्रंथ में कहा है कि-जो सदा परनिंदा करता है, आठ मद के विस्तार में प्रसन्न होता है और अन्य की लक्ष्मी देखकर जलता है, वह सकषायी हमेशा दुःखी होता है। कुल, गण और संघ से भी बाहर किया हुआ तथा कलह और विवाद में रुचि रखनेवाले साधु को निश्चय देवलोक में भी देवों की सभाओं में बैठने का स्थान नहीं मिलता है। इसलिए जो एक व्यक्ति लोक व्यवहार विरुद्ध अकार्य को करता है और उस कार्य की जो दूसरा निंदा करता है वह उसके दोष से मिथ्या दुःखी होता है। अच्छी तरह संयम में उद्यमशील साधु को भी (१) आत्म प्रशंसा, (२) पर निंदा, (३) जीभ, (४) जननेन्द्रिय और (५) कषाय ये पाँच
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