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________________ समाधि लाभ द्वार-परपरिवाद पाप स्थानक द्वार-सती सुभद्रा की कथा श्री संवेगरंगशाला संयम से रहित करते है। परनिंदा की प्रकृति वाला जिन-जिन दोषों से अथवा वचन द्वारा दूसरे को दूषित करता है उन-उन दोषों को वह स्वयं प्राप्त करता है। इसलिए वह अदर्शनीय है। परपरिवाद में आसक्त और अन्य के दोषों को बोलनेवाला जीव भवांतर में जाने के बाद स्वयं उन्हीं दोषों को अनंतानंत गुणा प्राप्त करता है। इस कारण से परपरिवाद अति भयंकर विपाक वाला है, सैंकड़ों संकट का संयोग वाला है, समस्त गुणों को खींचकर ले जाने वाली दुष्ट आंधी है और सुख रूपी पर्वत को नाश करने में वज्रपात समान है, इस जन्म में सर्व दुःखों का खजाना और जन्मांतर में दुर्गति के अंदर गिराने वाला है, उस जीव को संसार से कहीं पर भी जाने नहीं देता है। सुभद्रा के श्वसुर वर्ग के समान अपयश के वाद से मारा गया तथा परनिंदा के व्यसनी लोग में निंदा को प्राप्त करता है और निंदा करने वाले उस श्वसुर वर्ग की निंदा को नहीं करनेवाली महासत्त्व वाली उस सुभद्रा ने दैवी सहायता को प्राप्त करके कीर्ति प्राप्त की। वह इस प्रकार : सती सुभद्रा की कथा चंपा नगरी में बौद्ध धर्म के भक्त एक व्यापारी पुत्र ने किसी समय जिनदत्त श्रावक की सुभद्रा नाम की पुत्री को देखा ।।६४००।। और उसके प्रति तीव्र राग वाला हुआ, उसके साथ विवाह करने की याचना की, परंतु वह मिथ्या दृष्टि होने से पिता ने उसे नहीं दी। फिर उससे विवाह करने के लिए उसने कपट से साधु के पास जैन धर्म को स्वीकार किया और बाद में वह धर्म उसे भावरूप में परिवर्तित हो गया। जिनदत्त श्रावक ने भी कपट रहित धर्म का रागी है, ऐसा निश्चय करके सुभद्रा को देकर विवाह किया और कहा कि-मेरी पुत्री को अलग घर में रखना, अन्यथा विपरीत धर्म वाले श्वसुर के घर में यह अपनी धर्म प्रवृत्ति किस तरह करेगी? उसने वह कबूल किया और उसी तरह उसे अलग घर में रखी। वह हमेशा श्री जिनपूजा, मुनिदान आदि धर्म करती थी। परंतु जैन धर्म के विरोधी होने से श्वसुर वर्ग उसके छिद्र देखते, निंदा करने लगे। उसका पति भी 'यह लोक द्वेषी है' ऐसा मानकर उनके वचनों को मन में नहीं रखता था। इस तरह सद्धर्म में रक्त उन दोनों का काल व्यतीत होता था। एक दिन अपने शरीर की सार संभाल नहीं लेने वाले त्यागी एक महामुनि ने भिक्षार्थ उसके घर में प्रवेश किया। भिक्षा को देते सुभद्रा ने मुनि की आँख में घास का तिनका गिरा हुआ देखा 'यह मुनि को पीड़ाकारी है' ऐसा जानकर सावधानीपूर्वक स्पर्श बिना जीभ से निकाल दिया, परंतु उसे दूर करते उसके मस्तक का तिलक मुनि के मस्तक पर लग गया और वह ननंद आदि ने उसे देखा। इससे लम्बे काल में निंदा का निमित्त को प्राप्तकर उसने उसके पति को कहा कि-तेरी स्त्री का इस प्रकार निष्कलंक शील को देख! अभी ही उससे भोग भोगकर इस मुनि को विदा कर दिया, यदि विश्वास न हो तो साधु के ललाट में लगा हुआ उसका तिलक देख! फिर उस तिलक को वैसा देखकर लज्जा को प्राप्त करते उसके रहस्य को जाने बिना उसका पर्व स्नेह मंद हो गया और उसके प्रति मंद आदर करनेवाला हुआ। फिर उसने श्वसुर के कुल में सर्वत्र भी उसके उस दोष को जाहिर किया और पति को अत्यंत परांगमुख देखने से और लोगों से अपने शील को दोष रूपी मैल से मलिन और जिनशासन की निंदा जानकर अति शोक को धारण करती सुभद्रा ने श्री जिन परमात्मा की पूजा करके कहा कि-'यदि कोई भी देव मुझे सहायता करेगा तभी इस काउस्सग्ग को पूर्ण करूँगी।' ऐसा कहकर अत्यंत सत्त्ववाली दृढ़ निश्चयवाली उसने काउस्सग्ग किया। उसके भाव से प्रसन्न हुए समकित दृष्टि देव वहाँ आया। और कहा कि-हे भद्रे! कहो कि तेरा जो इच्छित करने का है वह 'मैं करूँ" फिर काउस्सग्ग को पारकर सुभद्रा ने इस प्रकार कहा कि-हे देव! दुष्ट लोगों ने गलत बातें फैलाई हैं, इससे शासन की निंदा हो रही है, वह खत्म हो और शीघ्र शासन की महान प्रभावना हो, इस तरह कार्य करो। 271 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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