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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्धार-सती सुभद्रा की कथा-माया मृघावाद पाप स्थानक द्वार
देवता ने वह बात स्वीकारकर उसे इस प्रकार कहा कि-कल नगर के दरवाजे में इस तरह मजबूत बंद करूँगा कि उसे कोई भी खोल नहीं सकेगा और मैं आकाश में रहकर कहूँगा कि 'अत्यंत शुद्ध शीलवाली स्त्री चालनी में रखे जल से तीन बार छींटे देकर इन बंद दरवाजों को खोलेगी, परंतु अन्य स्त्री नहीं खोल सकेगी।' इससे उस कार्य को अनेक स्त्रियाँ साध्य नहीं कर सकेंगी, तब पूर्वोक्त विधि अनुसार तूं लीला मात्र में उसे खोल देगी। इस तरह समझाकर उस समय वह देव अदृश्य हो गया और सुभद्रा ने भी कार्य सिद्ध हो जाने से परम संतोष को प्राप्त किया। जब प्रभात हुआ तब नगर के दरवाजे नहीं खुलने से नागरिक व्याकुल हुए और उस समय आकाश में वह वाणी प्रकट हुई, तब राजा, सेनापति की तथा उत्तम कुल में जन्मी हुई शील से शोभित स्त्रियाँ द्वार को खोलने के लिए आयीं, परंतु चालनी में पानी नहीं टिकने से गर्व रहित हुईं और कार्य सिद्ध नहीं होने से वापस आयीं। इसे देखकर सारा लोग समूह अत्यंत व्याकुल हुआ। फिर पुनः नगरी में सर्वत्र शीलवती स्त्री की विशेषतया खोज होने लगी। उस समय सासु आदि को विनयपूर्वक नमस्कार करके सुभद्रा ने कहा कि-यदि आप आज्ञा दो, तो मैं भी नगर के द्वार को खोलने जाऊँ। इससे वे परस्पर गुप्त रूप में हँसने लगे और ईर्ष्यापूर्वक कहा कि-पुत्री! स्वप्न में भी दोष नहीं करने वाली, तूं ही अति प्रसिद्ध महासती है, इसलिए जल्दी जाओ और स्वयंमेव अपनी निंदा करवाओं, इसमें क्या अयोग्य है? उनके इस तरह कहने पर भी सुभद्रा स्नान करके सफेद वस्त्रों को धारणकर चालनी में पानी भरकर, लोग से पूजित और भाट चारण आदि द्वारा स्तुति कराती हुई उसने नगर के तीन दरवाजे खोलकर कहा कि-अब यह चौथा दरवाजा शील से मेरे समान जो होगी वह स्त्री फिर खोलेगी। इस तरह कहकर उसने उस दरवाजे को ऐसा ही छोड़ दिया। उस समय राजा आदि लोगों ने पूजा सत्कार किया और वह अपने घर गयी। उसके बाद उसके श्वसुर वर्ग के लोगों को मिथ्या निंदाकारक मानकर नगर जनोंने उनकी बहुत निंदा की। इसलिए वस्तु स्वरूप जानकर, हे क्षपक मुनि! श्रेष्ठ आराधना में ही तत्पर बन, परंतु अनेक संकट के कारणभूत परनिंदा को मन से भी नहीं करना। इस तरह सौलहवाँ पाप स्थानक संक्षेप से कहा है। अब माया मृषावाद नामक सत्तरहवाँ पाप स्थानक को भी कहता हूँ ।।६४३७।।
(१७) माया मृषावाद पाप स्थानक द्वार :- अत्यंत क्लेश के परिणाम से उत्पन्न हुआ माया द्वार अथवा कुटिलता से युक्त मृषा वचन को माया मृषावाद अथवा मायामोष कहते हैं। इसको यद्यपि दूसरे और आठवें पाप स्थानक में भिन्न-भिन्न दोषों के वर्णन द्वारा कहा है, फिर भी मनुष्य दोनों द्वारा दूसरे को ठगने में मुख्य वेष अभिनय करने वाली चतुर वाणी द्वारा पाप में प्रवृत्ति करता है। इस कारण से इसे अलग रूप में कहा है। माया मृषा वचन भोले मनुष्यों के मन रूपी हिरण को वश करने का जाल है, शील रूपी वांस की घटादार श्रेणी का नाशक फल का प्रादुर्भाव है, ज्ञानरूपी सूर्य का अस्ताचल गमन है, मैत्री का नाशक, विनय का भंजक और अकीर्ति का कारण है, इस कारण से दुर्गति से विमुख (डरनेवाला) बुद्धिमान पुरुष किसी तरह से उसका आचरण नहीं करता और चाहे! मस्तक से पर्वत को तोड़ दो, तलवार की तीक्ष्ण धार के अग्र भाग को चबाओ, ज्वलित अग्नि की शिखा का पान करो, आत्मा को करवत से चीरो, समुद्र के पानी में डूबो अथवा यम के मुख में प्रवेश करो, अधिक क्या कहें? ये सारे कार्य करो, परंतु निमेष मात्र काल जितना भी माया मृषावाद न करो। क्योंकि मस्तक से पर्वत को तोड़ना आदि कार्य, साध्य धनवाला साहसिक धीर पुरुष को किसी समय अदृश्य सहायता के प्रभाव से अपकारक नहीं होता, यदि अपकारी हो फिर भी वह एक जन्म में ही होता है और मायामोष करने से तो अनंत भव तक भयंकर फल देने वाला होता है। जैसे खट्टे पदार्थ से दूध अथवा जै दूध आदि पंच गव्य निष्फल जाते हैं, वे बिगड़ जाते हैं वैसे माया मृषा युक्त धर्म क्रिया भी निष्फल होती है। कठोर
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