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________________ समाधि लाभ द्वार-कूट तपस्वी की कथा-मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला तपस्या करो, श्रुतज्ञान का अभ्यास करो, व्रतों को धारण करो तथा चिरकाल तक चारित्र का पालन करो, परंतु वह यदि माया मृषा युक्त है तो वह गुण कारक नहीं होता है। एक ही पुरुष माया मृषावादी और अति धार्मिक इस तरह परस्पर दोनों विरोधी हैं, ये दोनों नाम भोले मनुष्यों को भी निश्चय अश्रद्धेय बनाते हैं। इसलिए आत्महित के गवेषक बुद्धिमान मनुष्य ऐसा कौन होगा कि शास्त्र में जिसके अनेक दोष सुने जाते हैं उस माया मृषावाद को करें? फिर भी यदि दुर्गति में जाने का मन हो, तो उन अठारह पाप स्थानकों में से यह एक ही होने पर माया मृषा निश्चय वहाँ ले जाने की क्रिया में समर्थ है। इस तरह यदि माया मृषा के अंदर एकांत अनेक दोष नहीं होता तो पूर्व मुनि, बिना द्वेष बड़ी आवाज से इस तरह त्याग करने के लिए नहीं कहते। इस प्रकार होने पर भी जो मुग्ध लोगों को माया मृषा द्वारा ठगकर लूटता है, वह तीन गाँव के बीच में रहने वाले कूट तपस्वी के समान शोक करता है ।।६४५३।। उसकी कथा इस प्रकार : कूट तपस्वी की कथा उज्जयनी नामक नगरी में अत्यंत कूट कपट का व्यसनी अघोर शिव नाम का महा तुच्छ ब्राह्मण रहता था। इन्द्रजाल के समान माया से लोगों को ठगने की प्रवृत्ति करता था। इससे लोगों ने नगर में से निकाल दिया था। वह अन्य देश में चला गया, वहाँ पर हल्के चोर लोगों के साथ मिल गया और अति रौद्र आशयवाले उसने उनको कहा कि-यदि तुम मेरी सेवा करो, तो मैं साधु होकर निश्चय से लोगों के धन का सही स्थान जानकर तुम्हें कहूँगा, फिर तुम सुखपूर्वक चोरी करना। चोर लोगों ने उसका कथन स्वीकार किया और वह भी त्रिदंडी वेश धारणकर तीन गाँवों के बीच के उपवन में जाकर रहा। तथा उन चोर लोगों ने जाहिर किया कि-यह ज्ञानी और महातपस्वी महात्मा है, एक महीने में आहार लेते हैं। उसे बहुत कष्टों से थका हुआ और स्वभाव से ही दुर्बल देखकर लोग 'यह महा तपस्वी है' ऐसा मानकर परम भक्ति से उसकी पूजा करने लगे। उसको वे अपने घर आमंत्रण देते, हृदय की सारी बातें कहते, निमित्त पूछते और वैभव के विस्तार को कहते थे। इस तरह प्रतिदिन उसकी सेवा करने लगे। परंतु वह बगवृत्ति से अपने आपको तो बाह्य से लोगों को उपकारी रूप में दिखाता और अंतर से चोरों को उनके भेद कहता था। और रात्री में चोरों के साथ मिलकर वह पापी उन लोगों का धन चोरी करता था। कालक्रम से वहाँ ऐसा कोई मनुष्य न रहा कि जिसके घर चोरी न हुई हो। एक समय वे एक घर में सेंध खोदने लगे और घर के मालिक ने वह जान लिया, इससे उसने सेंध के मख के पास खडे रहकर देखा और एक चोर को सर्प के समान घर में प्रवेश करते पकडा. दसरे सभी भाग गये। प्रभात का समय होते ही चोर राजा को अर्पण किया। राजा ने कहा कि-यदि तूं सत्य कहेगा तो तुझे छोड़ दिया जायगा। फिर भी उसने सत्य नहीं कहा, तब चाबुक, दण्ड, पत्थर और मुट्ठी से बहुत मारते उसने सारा वृत्तांत कहा, इससे शीघ्र ही उस त्रिदंडी को भी बाँधकर उपवन में से लाया और वहाँ तक उसे इतना मारा कि जब तक उसने भी अपने दुराचार को स्वीकार नहीं किया। फिर वेदज्ञ ब्राह्मण का पुत्र मानकर राजा ने उसकी दोनों आँखें निकाल दी और तिरस्कार करके उसी समय उसे नगर से निकाल दिया। बाद में भिक्षार्थ घूमते, लोगों से तिरस्कार प्राप्त करते और दुःख से पीड़ित होते, वह 'हाय! मैंने यह क्या किया?' इस तरह अपने आपका शोक करने लगा। इस तरह हे सुंदर! अविनय जिसमें मुख्य है और अन्याय का भंडार रूप माया मृषा को छोड़कर तूं परम प्रधान मन की समाधि को स्वीकार कर। इस तरह सत्तरहवाँ पाप स्थानक कहा। अब मिथ्या दर्शन शल्य नाम का अठारहवाँ पाप स्थानक कहता हूँ ।।६४७२ ।। (१८) मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार :- दृष्टि की विपरीतता रूप एक साथ दो चंद्र के दर्शन के - 273 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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