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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार - प्रथम अनुशास्ति द्वार - मिध्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार समान जो मिथ्या, अर्थात् विपरीत दर्शन उसे यहाँ मिथ्या दर्शन कहा है और वह शल्य के समान मुश्किल से नाश होता है, दुःखों को देने वाला होने से उसे 'मिथ्या दर्शन शल्य' नाम से उपचार किया है। यह शल्य दो प्रकार का है, प्रथम द्रव्य और दूसरा भाव से । उसमें द्रव्य शल्य भाला, तलवार आदि शस्त्र और भाव शल्य मिथ्या दर्शन जानना। शल्य के समान हृदय में रहा हुआ, सभी दुःखों का कारण मिथ्या दर्शन शल्य भयंकर विपाक वाला है। प्रथम द्रव्य शल्य निश्चय एक को ही दुःख का कारण है और दूसरा जो भाव शल्य है वह स्व- पर उभय को भी दुःख का कारण बनता है। जैसे राहु की प्रभा का समूह केवल सूर्य के ही प्रकाश को नाश नहीं करता, परंतु अंधकारत्व से समग्र जगत के प्रकाश को भी नाश करता है, इस तरह फैलता हुआ भाव शल्य भी एक उस आत्मा को ही नहीं परंतु समग्र जगत के प्रकाश (सम्यक्त्व) का भी नाश करता है। इस प्रकार होने से मिथ्या दर्शन रूपी राहु की प्रभा के समूह से सम्यक्त्व का प्रकाश नाश होता है और भाव अंधकार के समूह को करनेवाले मिथ्या दर्शन से जो मुरझा जाता है वह मूढात्मा किसी भी पुरुष रूपी सूर्य में और अपने जीवन में भी वह मिथ्यात्व रूप अंधकार को ही बढ़ाता है, और परंपरा से फैलता हुआ प्रमाण रहित, अमर्यादित वह अंधकार से व्याप्त है, इसलिए अंधकारमय पर्वत की गुफा के समान प्रकाश रहित इस जगत में संसारवास से उद्विग्न और पदार्थों को सम्यग् जानने की इच्छा वाले जीव भी को सम्यक्त्व का प्रकाश सुखपूर्वक इस पापस्थानक की उपस्थिति में किस तरह प्राप्त कर सकते हैं?
और यह मिथ्या दर्शन शल्य दिग्मोह है, आँखों के ऊपर बाँधी हुई पट्टी है, यही जन्मांध जीवन है, यही आँखों को नाश करने का उपाय है, अथवा वह इस जगत को शीघ्र हमेशा परिभ्रमण करने वाला चक्र है। अथवा वह इस समुद्र की ओर दक्षिण में जानेवाले की इच्छा वाले का हिमवंत की ओर उत्तर में गमन है या पीलिया के रोगी का वह मिथ्या ज्ञान है अथवा वह बुद्धि का विभ्रम है अथवा वह सीप में रजत का भ्रान्त ज्ञान है अथवा वह मृग तृष्णा में उज्ज्वल जल का दर्शन है अथवा तो वह इस लोक में सुनी जाती विपरीत धातु है अथवा वह अकाल में उत्पन्न हुआ उपद्रव है तथा वह रजो वृष्टि का उत्पात है अथवा वह निश्चय घोर अंध कुएँ रूपी गुफा में पतन है, क्योंकि मिथ्या दर्शन रूपी शल्य सम्यक्त्व को रोकने वाला प्रति मल्ल है और सन्मार्ग में चलने वाले को महान् कीचड़ का समूह है। और इसके कारण जीव जो अदेव को भी देव, अगुरु को भी गुरु, अतत्त्व को भी तत्त्व और अधर्म को भी धर्म रूप में मानता है तथा जो परम पद का साधक है, यथोक्त गुण वाले देव, गुरु, तत्त्व और धर्म में अरुचि अथवा प्रद्वेष को करता है तथा देव आदि परम पदार्थों में उदासीनता से करता है वह सर्व इस विश्व में मिथ्या दर्शन शल्य का दुष्ट विलास है। तथा यह मिथ्या दर्शन शल्य सर्व प्रकार से जीता अविवेक का मूल बीज है, क्योंकि मिथ्यात्व से मनुष्य बुद्धिमान होकर भी मूढ़ मन वाला हो जाता है। जैसे अि तृषातुर मृग मृगजल में भी पानी को खोजता है वैसे मिथ्यात्व से मूढ़ मनवाला गलत को सत्य देखता है। जैसे धतूरे का भक्षण करनेवाला पुरुष मिथ्या पदार्थ को भी सत्य देखता है, वैसे मिथ्यात्व से मूढ़ मति वाला धर्म अधर्म के विषय में उलटा देखता है।
अनादिकाल से मिथ्यात्व की भावना से मूढ़ बना जीव मिथ्यात्व के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक्त्व में दुःख से प्रीति करता है। उसमें रुचि करते पीड़ा होती है। तीव्र मिथ्यात्वी जीव जो महान दोष करता है ऐसा दोष अग्नि भी नहीं करती है, जहर भी नहीं करता है और काला नाग भी नहीं करता है। जैसे अच्छी तरह जल से धोये
भी कड़वे पात्र में दूध का नाश होता है, वैसे मिथ्यात्व से कलुषित जीव में प्रकट हुआ तप, ज्ञान और चारित्र का विनाश होता है। यह मिथ्यात्व संसार रूप महान् वृक्ष के बड़े बीज रूप में है, इसलिए मोक्ष को चाहने वाले
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