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समाधि लाभ द्वार-मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार- जमाली की कथा
श्री संवेगरंगशाला आत्माओं को उसका त्याग करना चाहिए ।। ६५०० || मिथ्यात्व से मूढ़ मन वाला जीव मिथ्या शास्त्रों के श्रवण से प्रकट हुई कुवासना से वासित होता है, अतत्त्व, तत्त्व अथवा आत्मतत्त्व को भी नहीं जानता है। मिथ्यात्व के अंधकार से विवेक रूपी नेत्र को बंद करनेवाला जीव, उल्लू के समान सद्धर्म को जाननेवाले धर्मोपदेशक रूपी सूर्य को भी नहीं देख सकता है। यदि मनुष्य में यह एक ही मिथ्यात्व रूप शल्य लगा है तो सर्व दुःखों के लिए वही पर्याप्त है अन्य दोष से कोई प्रयोजन नहीं है। जहर से युक्त बाण से भेदन हुआ पुरुष उसका प्रतिकार नहीं करने से जैसे वह वेदना प्राप्त करता है वैसे मिथ्यात्व शल्य से वेधा गया यदि उसे दूर नहीं करता है तो वह जीव तीव्र वेदना को प्राप्त करता है। इसलिए हे सुंदर ! चतुराई को प्रकटकर शीघ्र मिथ्यात्व को दूर करके हमेशा सम्यक्त्व में ममता रख। यह मिथ्या दर्शन शल्य वस्तु का उलटा बोध करानेवाला है, सद्धर्म को दूषित करने वाला और संसार अटवी में परिभ्रमण कराने वाला है। मनमंदिर में सम्यक्त्व रूप दीपक ऐसा प्रकाशित कर दे कि मिथ्यात्व रूप प्रचंड पवन तुझे प्रेरणा न कर सके, अथवा ज्ञान रूपी दीपक बुझा न सके। पुण्य के समूह से लभ्य सम्यक्त्व रत्न मिलने पर भी मिथ्याभिमान रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बना हुआ जीव जमाली के समान उस सम्यक्त्व का नाश करता है । । ६५०८ ।। उसका प्रबंध इस प्रकार :
जमाली की कथा
जगत् गुरु श्री वर्धमान स्वामी के पास भगवंत की बहन के पुत्र जमाली ने राज्य सुख को त्यागकर पाँच सौराज पुत्रों के साथ दीक्षा ली थी और उत्तम धर्म की श्रद्धापूर्वक संवेग से साधु जीवन की क्रिया में प्रवृत्ति करता था। एक समय पित्त ज्वर की तीव्र पीड़ा से निरुत्साही हुआ, तब उसने शयन के लिए अपने स्थविरों को संथारा बिछाने के लिए कहा। कहने के बाद शीघ्रता से मुनि संथारा बिछा रहे थें तब थोड़े समय का भी काल विलंब सहन करने में असमर्थ होने से उन्होंने पुनः साधुओं को पूछा कि - क्या संथारा बिछा दिया? साधुओं ने थोड़ा संथारा बिछाया था फिर भी ऐसा कहा - 'संथारा बिछा दिया है' तब जमाली उस स्थान पर आया, और संथारे को बिछाते देखकर सहसा भ्रमणा प्राप्त कर उसने कहा कि हे मुनियों! असत्य क्यों बोल रहे हो? जो कि 'बिछाते हुए भी संथारे को 'बिछा दिया' ऐसा बोलते हो?' तब स्थविरों ने कहा कि 'जैसे तीन जगत में जो कार्य प्रारंभ हो गया उस कार्य को श्री वीर परमात्मा ने किया' ऐसा कहने का कहा हैं वैसे बिछाते - बिछाते संथारे को बिछाया ऐसा कहने में क्या अयुक्त है? उन्होंने ऐसा कहा फिर भी मिथ्या आग्रह से सम्यक्त्व भ्रष्ट हुआ, इससे 'कार्य पूर्ण होने पर ही वह कार्य हुआ कहना चाहिए' ऐसा गलत पक्ष की स्थापनाकर उसमें चंचल बना त्रिलोक बंधु वीर प्रभु का विरोधी बना। दुष्कर तप करने पर भी मुग्ध मनुष्यों को भ्रम में डालते वह जमाली चिरकाल तक पृथ्वी के ऊपर विचरता रहा।
और अपनी पुत्री को अपने हाथ से दीक्षा दी तथा सदा स्वयं ने साध्वी प्रियदर्शना को अध्ययन करवाया था परंतु मिथ्यात्व दोष से जमाली के मत के अनुसार चलने वाली थी । अहो ! आश्चर्य की बात है कि तीन जगत जगतगुरु प्रत्यक्ष सूर्य समान उपस्थित होते हुए उनकी ही पुत्री और जमाई भी प्रभु श्री वर्धमान स्वामी के विरोधी हुए । इस विषय पर अधिक क्या कहें? केवल संयम को विफल बनाकर जमाली मरकर लांतक कल्प में किल्बिष देव हुआ । उसका वह चारित्र गुण, वह ज्ञान की उत्कृष्टता और उसका वह सुंदर संयम जीवन सब एक साथ ही नाश हुआ। ऐसे मिथ्याभिमान को धिक्कार हो ।
हे सुंदर ! जिस मिथ्यात्व के परदे से आच्छादित हुए जीव को उसी क्षण में वस्तु भी अवस्तु रूप दिखती है । यदि उसकी वह सम्यक्त्व आदि गुण रूप लक्ष्मी मिथ्यात्व के अंधकार से आच्छादित न हुई होती तो हम नहीं
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