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________________ समाधि लाभ द्वार-अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार-रुद्र और अंगर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला संसार का कारणभूत क्रोध है इसको कौन आश्रय दे? उसमें भी श्री जिन वचन के ज्ञाता तो विशेषतः स्थान कैसे दे? केवल मेरी भक्ति में तत्पर बनकर यक्ष यह कार्य करता है इसलिए उसे ही प्रसन्न करो कि जिससे कुशलता को प्राप्त करों। उस समय विविध प्रकार से यक्ष को उपशांत करके हर्ष से रोमांचित हुए सभी ब्राह्मणों ने भक्तिपूर्वक अपने निमित्त तैयार किया वह भोजन उस साधु को दिया और प्रसन्न हुए यक्ष ने आकाश में से सोनामोहर की वर्षा की तथा भ्रमरों से व्याप्त सुगंधी पुष्प समूह से मिश्रित सुगंधी जल की वर्षा की। इस तरह कलह के त्याग से वह मातंग मनि देव पूज्य बनें। इसलिए हे क्षपक मुनि! कलह में दोषों को और उसके त्याग में गुणों का सम्यग् विचारकर इस तरह कोई उत्तम प्रकार से वर्तन करें जिससे तेरे प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होती है। इस तरह बारहवाँ पाप स्थानक भी कुछ अल्प मात्र कहा है। अब तेरहवाँ अभ्याख्यान नामक पाप स्थानक कहते हैं ।।६२४२।। (१३) अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार :- प्रायःकर जिसमें दोषों का अभाव हो फिर भी उसको उद्देश्य कर उस पर जो प्रत्यक्ष दोषारोपण करना उसे ज्ञानियों ने अभ्याख्यान कहा है। यह अभ्याख्यान स्व-पर उभय के चित्त में दुष्टता प्रकट करने वाला है, तथा उस अभ्याख्यान का परिणाम वाला पुरुष कौन-कौन सा पाप बंध नहीं करता? क्योंकि अभ्याख्यान बोलने से क्रोध, कलह आदि पापों में जो कोई भी यह भव-परभव संबंधी दोष पूर्व में कहे हैं वे सब पाप प्रकट होते हैं। यद्यपि अभ्याख्यान देने का पाप अति अल्प होता है, फिर भी वह निश्चय दस गुणा फल को देने वाला होता है। सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि 'एक बार भी किया हुआ वध, बंधन, अभ्याख्यान दान, परधन हरण आदि पापों का सर्व से जघन्य अर्थात् कम से कम भी उदय दस गुणा होता है और तीव्र-तीव्रतर प्रद्वेष करने से तो सौ गुणा, हजार गुणा, लाख गुणा, करोड़ गुणा अथवा बहुत, बहुतर भी विपाक होता है। तथा सर्व सुखों का नाश करने में प्रबल शत्रु समान है, गणना से कोई संख्या नहीं है, किसी से रक्षण नहीं हो सकता है तथा अत्यंत कठोर हृदय रूपी गुफा को चिरने में एक दक्ष-स्नेह घातक है, इन सब दुःखों का कारण यह अभ्याख्यान है। और इससे विरति वाले को इस जगत में इस भव-परभव में होने वाले सारे कल्याण नित्यमेव यथेच्छित स्वाधीन होते हैं। तेरहवें पाप स्थानक से रुद्र जीव के समान अतिशय अपयश को प्राप्त करता है और उससे विरक्त मनवाला अंगर्षि के समान कल्याण को प्राप्त रुद्र और अंगर्षि की कथा चंपा नगर में कौशिकाचार्य नामक उपाध्याय के पास अंगर्षि और रुद्र दोनों धर्मशास्त्र को पढ़ते थे। वे भी बदले की इच्छा बिना केवल पूजक भाव से पढ़ते थे। उपाध्याय ने अनध्याय (छुट्टी) के दिन उन दोनों को आज्ञा दी कि-अरे! आज शीघ्र लकड़ी का एक-एक भार जंगल में से ले आओ। प्रकृति से ही सरल अंगर्षि उस समय 'तहत्ति' द्वारा स्वीकार करके लकड़ी लेने के लिए जंगल में गया और दुष्ट स्वभाव वाला रुद्र घर से निकलकर बालकों के साथ खेलने लगा, फिर संध्याकाल के होते वह अटवी की ओर चला और उसने दूर से लकड़ी का बोझ लेकर अंगर्षि को आते देखा। फिर स्वयं कार्य नहीं करने से भयभीत होते उसने लकडी के भार को लाती उस प्रदेश से ज्योति यशा नामक वृद्धा को देखकर उसे मारकर खड्डे में गाड़ दिया और उसकी लकड़ियाँ उठाकर शीघ्रता से गरु के पास आया. फिर वह कपटी कहने लगा कि-हे उपाध्याय! आपके धर्मी शिष्य का चरित्र कैसा भयंकर है? क्योंकि आज संपूर्ण दिन खेल तमाशे कर अभी वृद्धा को मारकर, उसके लकड़ी के गढे को लेकर वह अंगर्षि जल्दी-जल्दी आ रहा है। यदि आप सत्य नहीं मानो तो पधारो कि जिसने उस वृद्धा की दशा की है और जहाँ उसे गाड़ा है, उसे दिखाता हूँ। जहाँ इस तरह कहता था इतने में लकड़ी का गट्ठा उठाकर 265 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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