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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-हरिकेशीबल की कथा बनी फिर सर्व अलंकार से विभूषित होकर विवाह के योग्य सामग्री को लेकर वह बड़े आडम्बर पूर्वक वहाँ आयी और पैरों में गिरकर मुनि से कहा कि हे भगवंत! मेरे ऊपर इस विषय में कृपा करो। मैं स्वयं विवाह के लिए आयी हूँ, मेरे हाथ को आप हाथ से स्वीकार करो। मुनि ने कहा कि जो स्त्रियों के साथ बोलना भी नहीं चाहता है, वह अपने हाथ से स्त्रियों के हाथ को कैसे पकड़ सकता है? ग्रैवेयक देव के समान मुक्तिवधू में रागी महामुनि दुर्गति के कारण रूप युवतियों में राग को किस तरह करते हैं? फिर यक्ष ने प्रतिकार करने के तीव्र रोष से मुनि रूप धारण करके उसके साथ विवाह किया और समग्र रात्री तक उसने उसकी विटंबना (दुःख दिया) की विवाह को स्वप्न समान मानकर और शोक से व्याकुल शरीर वाली वह प्रभात में माता-पिता के पास गयी और सारा वृत्तांत कहा, फिर यह स्वरूप जानकर रुद्रदेव नामक पुरोहित ने व्याकुल हुए राजा से कहा कि-हे देव! यह साधु की पत्नी है और उस साधु ने त्याग दी है, अतः तुम्हें उसे ब्राह्मण को देना चाहिए। राजा ने उसे स्वीकार किया और उस रुद्रदेव को ही उसको दे दी। वह उसके साथ विषय सेवन करते काल व्यतीत करने लगा। एक समय उसने यज्ञ प्रारंभ किया और अन्य देशों से वेद के अर्थ के ज्ञाता विचक्षण, बहुत पंडित, ब्राह्मण विद्यार्थिओं का समूह वहाँ आया। फिर वहाँ यज्ञ क्षेत्र में अनेक प्रकार का भोजन तैयार हुआ था। वहाँ मातंग मुनि मासक्षमण के पारणे पर भिक्षा के लिए आये और तप से सूखे काया वाले, अल्प उपधि वाले, मैलेकुचैले और कर्कश शरीर वाले उनको देखकर विविध प्रकार से हँसते धर्म द्वेषी उन ब्राह्मण विद्यार्थियों ने कहा कि-हे पापी! तूं यहाँ क्यों आया है? अभी ही इस स्थान से शीघ्र चला जा। उस समय यक्ष ने मुनि के शरीर में प्रवेश करके कहा कि मैं भिक्षार्थ आया हूँ, अतः भिक्षा दो। ब्राह्मणों ने सामने ही कहा कि जब तक ब्राह्मणों को नहीं दिया जाय और जब तक प्रथम अग्निदेव को तृप्त नहीं करते तब तक यह आहार क्षुद्र को नहीं दिया जाता, इसलिए हे साधु तूं चला जा! जैसे योग्य समय पर उत्तम क्षेत्र में विधिपूर्वक बोया हुआ बीज फलदायक बनता राह्मण और अग्निदेव को दान देने से फल वाला बनता है। फिर मनि के शरीर में प्रवेश किये हए यक्ष ने कहा कि तुम्हारे जैसे हिंसक, झूठे और मैथुन में आसक्त पापियों को जन्म मात्र से ब्राह्मण नहीं माने जा सकते हैं। अग्नि भी पाप का कारण है तो उसमें स्थापन करने से कैसे भला हो सकता है? और परभव में गये पिता को भी यहाँ से देने वाले का कैसे स्वीकार हो सकता है? यह सुनकर 'मुनि को गुस्सा आया है' ऐसा मानकर, सभी ब्राह्मण क्रोधित हुए और हाथ में डण्डा, चाबुक, पत्थर आदि लेकर चारों तरफ से मुनि को मारने दौड़े। यक्ष ने उनमें से कईयों को वहीं कटे वृक्ष के समान गिरा दिया, कई को प्रहार से मार दिया और कई को खून का वमन करवाया। इस प्रकार की अवस्था में सर्व को देखकर भय से काँपते हृदयवाली राजपुत्री ब्राह्मणी कहने लगी कि यह तो वे मुनि है कि जिसके पास उस समय स्वयं विवाह के लिए गयी थी, परंतु इन्होंने मुझे छोड़ दी है, ये तो मुक्तिवधू के रागी हैं, अतःदेवांगानाओं की इच्छा भी नहीं करते हैं। अति घोर तप के पराक्रम से इन्होंने सारे तिर्यंच, मनुष्य और देवों को भी वश किया है। तीनों लोक के जीव इनके चरणों में नमस्कार करते हैं। इनके पास विविध लब्धियाँ है, क्रोध, मान और माया को जीता है तथा लोभ परीषह को भी जीता है और महासात्त्विक हैं जो सूर्य के समान अति फैले हुए पाप रूपी अंधकार के समूह को चूरने वाले हैं। और कोपायमान बने अग्नि के समान जगत को जलाते हैं तथा प्रसन्न होने पर वही जगत का रक्षण करते हैं, इसलिए इनकी तर्जना करोगे तो मरण के मुख में जाओगे। अतः चरणों में गिरकर इस महर्षि को प्रसन्न करो। यह सुनकर पत्नि सहित रुद्रदेव विनयपूर्वक कहने लगा कि-हे भगवंत! रागादि से आपका अपराध किया है, उसकी आप हमें क्षमा करें, क्योंकि लोग में उत्तम मुनि का नमन करने वाले के प्रति वात्सल्य भाव होता है। फिर उनको मुनि ने कहा कि 264 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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