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समाधि लाभ द्वार-कलह द्वार-हरिकेशीबल की कथा
श्री संवेगरंगशाला किया, तथा यथा विधि उसका पालन करने लगा, परंतु उसने मद के महा भयंकर विपाकों को सुनने पर भी किसी प्रकार जाति मद को नहीं छोड़ा। आखिर मरकर वह स्वर्ग में देदीप्यमान देव हुआ और वहाँ से आयुष्य पूर्णकर जाति मद के अभिमान से गंगा नदी के किनारे चंडाल के कुल में रूप रहित और अपने स्वजनों का भी हाँसी पात्र बल नाम का पुत्र हुआ। अत्यंत कलह खोर और महा पिशाच के समान उद्वेगकारी उसने क्रमशः दोषों से और शरीर से वृद्धि प्राप्त की। फिर वसंतोत्सव आते मदिरापान और नाचने में परायण स्वजनों से कलह करते उसे स्वजनों ने निकाल दिया। इससे अत्यंत खेदित होते स्वजनों के नजदीक में रहकर विविध श्रेष्ठ क्रीड़ाएँ करता था। इतने में काजल और मेघ के समान काला श्याम तथा हाथी की सैंड समान स्थूल सर्प उस प्रदेश में आया और लोगों ने मिलकर उसे मार दिया। उसके बाद थोड़े समय में वैसा ही उसी तरह दूसरा सर्प आया, परंतु वह जहर रहित है, ऐसा मानकर किसी ने भी उसे नहीं मारा।
यह देखकर बल ने विचार किया कि निश्चय ही सर्व जीव अपने दोष और गुण के योग्य अशुभ-शुभ फल को प्राप्त करते हैं, इसलिए भद्रिक परिणाम वाला होना चाहिए। भद्रिक जीव कल्याण को प्राप्त करता है जहर के कारण सर्प का नाश हुआ और जहर रहित सर्प मुक्त बना। दोष सेवन करने वाले को अपने स्वजनों से भी पराभव होता है इसमें क्या आश्चर्य है? इसलिए अब मुझे भी दोषों का त्याग और गुणों को प्रकट करना चाहिए। ऐसा विचार करते साधु के पास गया, वहाँ धर्म सुनकर संसारवास से अति उद्वेग होते हुए वह मातंग नाम का महामुनि बना। दो, तीन, चार, पाँच और पन्द्रह उपवास आदि विविध तप में रक्त वह महात्मा विचरते वाराणसी नगरी में आया और वहाँ तिंदुक नामक उद्यान में गंडी तिंदुक यक्ष के मंदिर में रहा और वह यक्ष मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा करने लगा। किसी समय दूसरे उद्यान में रहे यक्ष ने आकर गंडी तिंदुक यक्ष को कहा कि-हे भाई! तुम क्यों दिखते नहीं हो? उसने कहा कि सभी गुणों के आधारभूत इस मुनिवर की हमेशा स्तुति-सेवा करता हूँ और अपना समय व्यतीत करता हूँ। मुनिश्री का आचरण देखकर प्रसन्न हुआ और उसने भी तिंदुक यक्ष
हा कि-हे मित्र। तं ही कतार्थ बना है कि जिसके वन में ऐसे मनि बिराजमान हैं. मेरे उद्यान में भी मनिराज पधारे हैं, इसलिए एक क्षण के लिए चल, हम दोनों साथ में जाकर उनको वंदन करें। फिर वे दोनों गये और वहाँ उन्होंने प्रमाद से युक्त किसी तरह विकथा करने में रक्त मुनि को देखा। इससे उस मातंग मुनि में वह यक्ष गाढ़ अनुरागी बना, फिर नित्यमेव उस महामुनि को भावपूर्वक वंदन करता और पाप रहित बना, उस यक्ष के दिन अत्यंत सुखपूर्वक व्यतीत होने लगे ।।६२०० ।।
___एक समय कोशल देश के राजा की भद्रा नाम की पुत्री परम भक्ति से यक्ष के मंदिर में आयी, साथ में अनेक प्रकार के फल-फूल की टोकरी उठाकर नौकर आये थे। भद्रा ने यक्ष प्रतिमा की पूजाकर उस मंदिर की प्रदक्षिणा देते उसने मैल से मलिन शरीर वाले विकराल काले श्याम वर्ण वाले लावण्य से रहित और तपस्या से सूखे हुए मातंग मुनि को काउस्सग्ग ध्यान में देखा। उसे देखकर उसने अपनी मूढ़ता से थुत्कार किया और उनकी निंदा की, इससे तुरंत कोपायमान होकर यक्ष ने उसके शरीर में प्रवेश किया। बार-बार अनुचित आलाप-संलाप करती उसे महा मुश्किल से राजभवन में ले गये और अत्यंत खिन्न चित्तवाले राजा ने भी अनेक मंत्र-तंत्र के रहस्यों के जानकार पुरुषों और वैद्यों को बुलाया, उन्होंने उसकी चारों प्रकार की औषधोपचारादि क्रिया की, परंतु कुछ भी लाभ नहीं होने से वैद्य आदि रुक गये तब अन्य किसी व्यक्ति में प्रवेश कर उस यक्ष ने कहा कि-इसने साधु की निंदा की है, इससे यदि तुम इसे उस साधु को ही दो तो छोड़ दूंगा, अन्यथा छूटकारा नहीं होगा। यह सुनकर 'किसी तरह यह बेचारी जीती रहे' ऐसा मानकर राजा ने उसे स्वीकार किया। फिर स्वस्थ शरीर वाली
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