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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-कलह द्धार-हरिकेशीबल की कथा तन में तथा मन में प्रकट हुए असंख्य सुखों का शत्रु है। कलह कलुषित करने वाला, वैर की परंपरा का हेतु उत्पन्न करनेवाला, मित्रों को त्रास देनेवाला और कीर्ति का क्षय काल है। कलह धन का नाश करनेवाला, दरिद्रता का प्रथम स्थान, अविवेक का फल और असमाधि का समूह है। कलह राजा के रूकावट का ग्रह है, कलह से घर में रही लक्ष्मी का भी नाश होता है, कलह से कुल का नाश होता है और अनर्थ को फैलाने वाला है। कलह से भवोभव अति दुस्सह दुर्भाग्य प्राप्त करता है, धर्म का नाश होता है एवं पाप को फैलाता है। कलह सुगति के मार्ग का नाशक, कुगति में जाने के लिए सरल पगडण्डी, कलह हृदय का शोषण करता है और फिर संताप होता समान मौका देखकर शरीर को भी नाश करता है. कलह से गणों की हानि होती है और कलह से समस्त दोष आते हैं। कलह स्व-पर उभय के हृदय रूपी महान पात्र में रहा हुआ स्नेह रस को तीव्र अग्नि के समान उबालकर क्षय करता है। कलह करने से धर्म कला का नाश होता है और इससे शब्द लक्षण (व्याकरण) में विचक्षण पुरुषों ने उसका नाम 'कलं हनन्ति इति कलहः' कल अर्थात् सुंदर आरोग्य या संतोष का नाश करे उसे कलह कहते हैं। इससे दूसरे की बात तो दूर रही किंतु अपने शरीर से उत्पन्न हुए फोड़े के समान अपने अंग से उत्पन्न हुआ कलह रूपी प्रिय पुत्र लोक में अति दुस्सह तीक्ष्ण दुःख को प्रकट करता है। शास्त्र में कलह से उत्पन्न हुए जितने दोष कहे हैं उतने ही गुण उसके त्याग से प्रकट होते हैं। इसलिए हे धीर! कलह को प्रशम रूपी वन को खत्म करने में हाथी के बच्चे समान समझकर परम सुख का जनक और शुभ ऐसे उसके (कलह के) विजय में हमेशा राग पूर्वक प्रयत्न कर तथा अपने और दूसरे को कलह न हो वैसा कार्य कर। फिर भी यदि किसी तरह वह प्रकट हो, तो भी वह बढ़े नहीं इस तरह वर्तन कर। प्रारंभ में हाथी के बच्चे के समान निश्चय बढ़ते जाते कलह को बाद में रोकना दुष्कर बन जाता है, उसके बाद तो विविध वध बंधन का कारण बनता है। यहाँ कलह पाप स्थानक के दोष से दुष्ट हरिकेशीबल अपने माता-पिता को भी अति उद्वेगकारी बना।' और उन दो सौ के व्यतिकर को देखकर तत्त्व का ज्ञाता बनकर साधुता को स्वीकारकर देवों का भी पूज्य बना।।६१७०।। वह इस प्रकार है : हरिकेशीबल की कथा? मथुरा नगरी में महाभाग्यशाली शंख नाम का राजा था। उसने सर्व वस्तुओं के राग का त्यागकर सद्गुरु के पास दीक्षा स्वीकार की थी। कालक्रम से सूत्र अर्थ का अभ्यास कर पृथ्वी ऊपर विहार करते वे तीन और चार प्रकार के मार्ग वाले मनोहर गजपुर नगर में आये, और भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश करते (वहां एक व्यंतराधिष्ठित अति तप्त मार्ग था) मुनि ने उस अग्नि वाले मार्ग के पास खड़े सोमदत्त नामक पुरोहित को पूछा कि-'क्या मैं इस मार्ग से जा सकता हूँ?' 'इससे अग्नि के मार्ग में जाते जलते हुए इसको मैं देखूगा।' ऐसा अशुभ विचार कर उसने कहा कि-हे भगवंत! आप इस मार्ग से पधारो! और इर्यासमिति में उपयोग वाले वे मुनि जाने लगे। फिर झरोखे में बैठकर पुरोहित उस मुनि को धीरे-धीरे जाते देखकर स्वयं भी उस मार्ग में गया। उस मार्ग को शीतल देखकर विस्मयपूर्वक इस तरह विचार करने लगा कि-धिक्कार हो! धिक्कार हो! मैं पापिष्ठ हूँ किमैंने ऐसा महापाप का आचरण किया है, अब इस महात्मा के दर्शन करने चाहिए, कि जिसके तप के प्रभाव से अग्नि से व्याप्त मार्ग भी शीघ्र ठण्डे जल के समान शीतल हो गया है। (व्यंतर उनके तप तेज को सहन न कर सकने से वहां से चला गया।) आश्चर्यकारक चारित्र वाले महात्माओं को क्या असाध्य है? ऐसा विचार करते वह उस तपस्वी के पास गया और भावपूर्वक नमस्कारकर अपने दुराचरण को बतलाया। मुनि ने भी उसे अति विस्तारपूर्वक श्री जिनधर्म का स्वरूप समझाया। उसे सुनकर वह प्रतिबोधित हुआ और उसने साधु धर्म स्वीकार 1. इह कलहयावठाणग-दोसेणं दूसिओ उ हरिएसो । नियजणणीजणगाण वि, उब्वियणिज्जो दढं जाओ ।।६१६६ ।। 262 Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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