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________________ समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-कलह पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला गाँव विचरते भाग्य योग से उस प्रदेश से जाते हुए किसी तरह हँस पक्षी को देखा, उसके बाद क्रोधातुर होकर वह जल भरी पाँखों से मुनि को जल के छींटे डालने लगा, इससे प्रचण्ड क्रोध से साधु ने उसे जला दिया और वहाँ से मरकर अंजन नामक बड़े पर्वत में वह सिंह उत्पन्न हुआ। फिर एक साथ कई साधु के साथ चलते उसी प्रदेश से जाते किसी तरह उनका साथ छोडकर एकाकी आगे बढे। उस साध को सिंह ने देखा. इससे मारने के लिए आते सिंह को मुनि ने जला दिया। तब वह मरकर बनारसी नगर में ब्राह्मण का पुत्र हुआ और साधु भी किसी भाग्ययोग से उसी नगर में पधारें। वहाँ भिक्षार्थ नगर में घूमते उनको बटुक ब्राह्मण ने देखा और धूल फेंकना इत्यादि उपसर्ग करने लगा, वहाँ भी पूर्व के समान मुनि ने उसे जला दिया और उस समय पश्वात्ताप के शुभ भाव से उसी नगर में वह राजा उत्पन्न हुआ, मुनि भी चिरकाल अन्यत्र विहार करने लगे। फिर राज्य लक्ष्मी को भोगते राजा को अपने पूर्व जन्म का चिंतन करने से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, इससे भयभीत बना वह विचार करने लगा कि-यदि अब वह मुझे मारेगा तो महान् अनर्थ होगा और राज्य का विशिष्ट सुख से मैं दूर हो जाऊँगा। इसलिए किसी तरह मैं मुनि की जानकारी करूँ और शीघ्र उनसे क्षमा याचना करूँ। इसलिए उसकी जानकारी के लिए उस राजा ने डेढ़(१/२) श्लोक से पूर्वभव का वृत्तांत रचकर घर के बाहर लगाया, वह इस प्रकार : गंगा में नंद नाविक, सभा में कोकिल, गंगा किनारे हँस, अंजन पर्वत में सिंह और वाराणसी में बटुक ब्राह्मण होकर वही राजा रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर इस तरह उद्घोषणा करवाई कि-जो कोई इसे पूर्ण करेगा उसे राजा आधा राज्य देगा। इससे नगर के सभी नागरिक अपनी मति रूप वैभव के अनुरूप उत्तरार्द्ध श्लोक की रचना कर राजा को सुनाते थे, परंतु इससे राजा को विश्वास नहीं होता था। एक दिन धर्मरुचि अणगार दीर्घकाल तक अन्यत्र विहारकर वहाँ आये और बाग में रुके, वहाँ बाग में माली 'गंगा में नंद नाविक' इत्यादि पद को बार-बार बोलते सुना। मुनि ने कहा कि-हे भद्र! तूं इस पद को बार-बार क्यों बोलता है? उसने सारा वृत्तांत कहा, तब उसका रहस्य जानकर मुनि ने उसका अंतिम आधा श्लोक इस प्रकार बनाकर कहा जो उसका घातक था वही यहाँ पर आया है। फिर प्रतिपूर्ण समस्या को लेकर माली राजा के पास गया और उसने उत्तरार्द्ध श्लोक सुनाया, इससे भयवश पीड़ित राजा मूर्छा से आँखें बंद कर दुःखी होने लगा। फिर 'यह राजा का अनिष्ट करने वाला है' ऐसा मानकर क्रोधित हुए लोग उसे मारने लगे, तब उसने कहा कि-'मैं काव्य रचना नहीं जानता हूँ, लोगों को क्लेश करने वाला यह वाक्य मुझे साधु ने कहा है।' फिर क्षण में चैतन्य को प्राप्तकर राजा ने उसे मारने से रोका और पूछा कि-यह उत्तरार्द्ध श्लोक किसने बनाया है? उसने कहा कि यह मुनि की रचना है, तब प्रधान को भेजकर राजा ने पूछवाया कि-यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं वंदनार्थ आऊँ, मुनि ने उसको स्वीकार करने से राजा वहाँ आया और उपदेश सुनकर श्रावक बना। महात्मा धर्मरुचि ने भी अपने पूर्व के दुराचरण का स्मरण करके उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण कर, सर्व प्रकार के कर्मों को मूल से नाश कर द्वेष रूपी वृक्ष को मूल से उखाड़कर अचल-अनुत्तर शिव सुख को प्राप्त किया ।।६१५१।। इस प्रकार जानकर हे सत्पुरुष! तूं फैलता हुआ दोष रूपी दावानल को प्रशम रूपी जल की वर्षा से शांत कर। हे सुंदर! ऐसा करने से अति तीव्र संवेग प्राप्त कर तूं भी स्वीकार किये हुए कार्य रूपी समुद्र को शीघ्र पारगामी होगा। इस प्रकार ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहा, अब कलह नाम का बारहवाँ पाप स्थानक कहता हूँ। (१२) कलह पाप स्थानक द्वार :- क्रोधाविष्ट मनुष्य के वाग्युद्ध रूपी वचन कलह कहलाता है और वह 261 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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