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________________ 'श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति दार-द्वेष पर-धर्मरुचि की कथा छुड़ाया और वह मुनि कहीं छुप गया, परंतु वह उसके विरह से मरकर यक्षिणी हुई। उसके छिद्र देखने लगी और विहार करते उस विरागी साधु को युवान साधुओं ने हँसीपूर्वक कहा-हे अहमित्र! तूं धन्य है या हे मित्र! तूं कुत्ती और पर्वत की बंदरी को भी प्रिय है। इस तरह मजाक करने पर भी कषाय रहित वह मुनि किसी समय जल प्रवाह को पार करने के लिए जंघा को लम्बी करके जब जाने लगा, तब गति भेद होने से पूर्व में क्रोधित बनी उस यक्षिणी ने उसके साथल काट दिये। अहो! दुष्ट हुआ, दुष्ट हुआ, अप्काय जीवों की विराधना न हो! ऐसा शुभ चिंतन करते वह जितने में अधीर बना, उतने में शीघ्र ही सम्यग् दृष्टि देवी ने उस यक्षिणी को पराजित करके टुकड़े सहित उसके साथल को जोड़कर पुनः अखंड बना दिया। इस तरह राग-प्रेम के वैराग्य में प्रवृत्ति करने वाला वह सद्गति को प्राप्त हुआ और राग से पराभूत वह यक्षिणी विडम्बना का पात्र बनी। इस तरह-हे देवानुप्रिय! तूं भी इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए श्री जिनवचन रूपी निर्मल जल से रागाग्नि को शांत कर। इस तरह दसवाँ पाप स्थानक संक्षेप से कहा है, अब द्वेष नामक ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहते हैं ।।६११०।। (११) द्वेष पाप स्थानक द्वार :- अत्यंत क्रोध और मान से उत्पन्न हुआ अशुभ आत्म परिणाम को यहाँ द्वेष कहा है। द्वेष अनर्थ का घर है, द्वेष भय, कलह और दुःख का भंडार है, द्वेष कार्य का घातक है और द्वेष अन्याय का भंडार है। द्वेष अशांति को करने वाला है, प्रेमी और मित्रों का द्रोह करने वाला है, स्व और पर उभय को संताप करने वाला है और गुणों का विनाशक है। द्वेष से युक्त पुरुष दूसरे के गुणों को भी दोष रूप में लेकर निंदा करता है और द्वेष से कलुषित मन वाला ही तुच्छ प्रकृति को धारण करता है, तुच्छ प्रकृति वाले को अन्य मनुष्य उसके विषय में भी जो-जो प्रवृत्ति करता है वह उसे निश्चय अपने विषय में मानता है और मूढ़ इस तरह से दुःखी होता है। दूसरे से कहे हुए धर्मोपदेश रूप रति के हेतु को भी वह जड़ात्मा पित्त से पीड़ित रोगी के समान शक्कर मिश्रित दूध को दूषित मानता है वैसे वह दूषित मानता है, इसलिए यदि रति का स्थान भी जिसके दोष से खेद का कारण बनता है उस पापी द्वेष को अवकाश देना योग्य नहीं है। निर्भागी द्वेष के पूर्व में जितने दोष कहे हैं, वह सुविशुद्ध प्रशमवाले को उतने ही गुण बनते हैं। द्वेष रूपी दावानल के योग से बार-बार जलता है, वह चित्त समाधि रूप बन समता रूपी जल की वर्षा से अवश्य पुनः नया संजीवन होता है। यहाँ पर द्वेष रूप पाप स्थानक से धर्मरुचि अणगार ने चारित्र अशुद्ध किया है और फिर संवेग को प्राप्त करके उस जीवन को ही उसने शुद्ध किया है।।६१२० ।। वह इस प्रकार से है : धर्मरुचि की कथा गंगा नामक महानदी में नंद नामक नाविक बहुत लोगों को मूल्य लेकर पार उतारता था। एक समय अनेक लब्धि वाले धर्मरुचि नाम के मुनिराज नाव से गंगा नदी पार उतरे, परंतु उनको नंद ने किराये के लिए नदी किनारे रोका। भिक्षा समय भी चला गया और सूर्य के किरणों से अति उष्ण रेती में गरमी के कारण से वे अति दुःखी हुए फिर भी उन्हें मुक्त नहीं किया, इससे क्रोधित हुए उस मुनि ने दृष्टि रूपी ज्वाला से उसे भस्मसात् कर अन्यत्र विहारकर गये। नाविक एक सभा स्थान में घरवासी कोयल बनी। साधु ने भी विचरते गाँव से आहार पानी लेकर भोजन करने के लिए उसी सभा में प्रवेश किया। उसे देखकर पूर्व के दृढ़ वैर से अति तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ। उसके भोजन प्रारंभ करते उस साधु के ऊपर ऊँचे स्थान से कचरे को फेंकने लगी। इससे उस स्थान को छोड़कर मुनि अन्य स्थान पर बैठे, वहाँ भी वह कचरा गिराने लगी, इससे दूसरे स्थान पर बैठे, वहाँ भी उसी तरह कचरा डाला, अतः क्रोधी बने धर्मरुचि मुनि ने भी 'यह नंद के समान कौन है?' ऐसा कहा और दृष्टि ज्वाला से जला दिया, तब वह नदी प्रवाह में रुके हुए गंगा किनारे हँस रूप में उत्पन्न हुआ, मुनि ने भी वहाँ से गाँव 260 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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