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समाधि लाभ द्वार - मैथुन विरमण द्वार-तीन सखी आदि की कथा
श्री संवेगरंगशाला
अति तुच्छ और नृत्यकार के नाच समान अथवा गंधर्व नगर के समान, भ्रांति कराने वाला है। सारे जगत में तिरस्कार को प्राप्त करते कुत्ते आदि अधम प्राणियों के समान वह है । सर्व को शंका प्रकट करने वाला, परलोक में धर्म, अर्थ का विघ्नकारी और प्रारंभ में ही अल्प सुख (कल्पना) के स्वभाव वाला, मैथुन सुख को विवेकी आत्मा केवल एक मोक्ष सुख की अभिलाषा वाला कौन इच्छा करता है? मैथुन के कारण से उत्पन्न किये पाप के भार से भारी बना मनुष्य लोहे के गोले के समान पानी में डूबकर नरक में गिरता है। ब्रह्मचर्य के गुण :अखंड ब्रह्मचर्य को पालकर संपूर्ण पुण्य समूह वाला मनुष्य इच्छा मात्र से प्रयोजन सिद्ध करने वाला उत्तम देवत्व प्राप्त करता है। और वहाँ से च्यवकर मनुष्य आयुष्य में देव समान भोग उपभोग की सामग्री वाला, पवित्र शरीर वाला और विशिष्ट कुल जाति से युक्त होता है, वह मनुष्य आदेय पुण्य वाला, सौभाग्यशाली, प्रिय बोलने वाला, सुंदर आकृति वाला, उत्तम रूप वाला तथा प्रिय और हमेशा प्रमोद आनंद करने वाला होता है। निरोगी, शोकरहित, दीर्घायुषी, कीर्तिरूपी कौमुदिनी के चंद्र समान, क्लेश आदि निमित्तों से रहित, शुभोदय वाला, अतुल बल-वीर्य वाला, सर्व अंगों में उत्तम लक्षणधारी, काव्य की श्रेष्ठ गूंथन समान अलंकारो वाला, श्रीमंत, चतुर, विवेकी और शील से शोभते तथा निरुपक्रमी पूर्ण आयु को भोगने वाला, स्थिर, दक्ष, तेजस्वी, बहुतजन मान्य और ब्रह्मचारी विष्णु - ब्रह्मा के समान होता है। इस चौथे पाप स्थानक में प्रवृत्ति के दोष और निवृत्ति के गुणों के विषय में गिरि नगर में रहने वाली सखियों का और उसके पुत्र का दृष्टांत है ।। ५८४१ । । वह इस प्रकार है :―
तीन सखी आदि की कथा
रैवतगिरि से शोभायमान विशिष्ट सौराष्ट्र देश के अंदर तिलक समान गिरि नगर में तीन धनवान की तीन पुत्री सखी रूप में थीं। उसी नगर में उनका विवाह किया था और श्रेष्ठ सुंदर मनोहर अंगवाली उन्होंने योग्य समय पर एक-एक पुत्र को जन्म दिया था। किसी एक दिन नगर के पास बाग में तीनों सखी मिलकर क्रीड़ा करने लगीं, उस समय चोरों ने उनको पकड़कर पारस नामक देश लेकर गये और वेश्या से बहुत धन लेकर बेचा। वेश्याओं ने उनको संपूर्ण वेश्या की कला सिखाई। फिर दूर देश से आये हुए श्रेष्ठ व्यापारी के पुत्र आदि धनवानों के उपभोग के लिए उन सखियों की स्थापना की और उन लोगों से उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की ।
इधर तीनों सखी के पुत्रों ने यौवनवय प्राप्त किया, तीनों पुत्र पूर्व माताओं के दृष्टांत से ही परस्पर प्रीति से युक्त रहते थे, उसमें केवल एक श्रावक पुत्र था जो अणुव्रतधारी था और स्वदार संतोषी था और दूसरे दो मिथ्यादृष्टि थे। किसी समय नाव में विविध प्रकार का अनाज लेकर धन प्राप्ति के लिए वे पारस बंदरगाह पर आये और भवितव्यतावश उन वेश्याओं के घर में रहे। केवल एक वेश्या ने अणुव्रतधारी श्रावक पुत्र को निर्विकारी मन वाला देखकर पूछा- हे भद्र! आप कहाँ से आये हैं? और ये दो तेरे क्या होते हैं? उसे कहो ! उसने उससे कहा कि - हे भद्रे ! हम गिरि नगर से आये हैं, हम तीनों परस्पर मित्र हैं और हमारी तीनों की माताओं को चोरो ने हरण किया है। उसने पूछा कि - हे भद्र! वर्तमान काल में भी वहाँ क्या जिनदत्त, प्रियमित्र और धनदत्त ये तीनों व्यापारी रहते हैं? उसने कहा कि उनके साथ तुम्हारा क्या संबंध है? उसने कहा कि वे हमारे पति थे और हमारे तीनों का एक-एक पुत्र था, इत्यादि सारा वृत्तान्त सुनाया, इससे उसने कहा कि मैं जिनदत्त का पुत्र हूँ और ये दोनों उन दोनों के पुत्र हैं। ऐसा कहने पर अपने पुत्र होने के कारण वह गले से आलिंगन कर मुक्त कण्ठ से अत्यंत रोने लगी और पुत्र भी उसी तरह रोने लगा । क्षणमात्र सुख-दुःख को पूछकर मित्रों को अकार्य करते रोकने की बुद्धि से जल्दी उन मित्रों के पास गया और एकांत में वह सारी बात कही, इससे वे दोनों उसी समय माता भोग करने
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