SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिकर्न द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला इसमें ज्ञाननय का मत यह है कि निश्चय कार्य का अर्थी सर्व प्रकार से हमेशा ग्रहण शिक्षा में जो सम्यग् यत्न करें, वह इस तरह-ग्रहण शिक्षा से हेय, उपादेय अर्थ को सम्यग् से रूप से जाने उसके बाद में ही बुद्धिमान को कार्य में प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा फल में विपरीतता होती है। मिथ्या ज्ञान से प्रवृत्ति करने वाले को फल की प्राप्ति विपरीत होने से, मनुष्यों को फल सिद्धि का एक ही हेतु सम्यग् ज्ञान ही है, क्रिया नहीं है। इस प्रकार इस लोक के फल के लिए जैसे कहा, वैसे जन्मान्तर के फल की भी यही विधि है, क्योंकि श्री जिनेश्वरों ने कहा कि 'प्रथम ज्ञान फिर दया-क्रिया'। इस तरह सर्व विषय में प्रवृत्ति करते साधु संयम का पालन करे। अज्ञानी क्या करेगा?2 और पुण्य तथा पाप को क्या जानेगा? यहाँ पर जैसे क्षायोपशमिक ज्ञान विशिष्ट फल साधक है वैसे क्षायिक ज्ञान भी सम्यग् विशिष्ट फल साधक है। ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि संसार समुद्र को पार उतरने वाले दीक्षित और प्रकृष्ट तप, चारित्र वाले श्री अरिहंत देव को भी वहाँ तक मोक्ष नहीं हुआ जब तक जीव अजीवादि समस्त पदार्थों के समूह को बताने में समर्थ केवलज्ञान प्रकट नहीं हुआ। इसलिए इस लोक परलोक की फल प्राप्ति में अवन्ध्य कारण ज्ञान ही है, इसलिए उसमें प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए, ज्ञान बिना इन्द्रदत्त के पुत्र समान मनुष्य गौरव को प्राप्त नहीं करता और ज्ञान से उसका ही पुत्र सुरेन्द्रदत्त के समान गौरवता प्राप्त करता है।।१३६४ ।। वह इस प्रकार है : इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा इन्द्रपुरी सदृश मनोहर इन्द्रपुर नाम का श्रेष्ठ नगर था। उसमें देवों से पूज्य इन्द्र समान पंडितों के पूज्य इन्द्रदत्त नाम का राजा था। उसकी बाईस रानियों से जन्मे हुए कामदेव सदृश मनोहर रूप वाले श्रीमाली आदि बाईस पुत्र थे। एक समय उस राजा ने अपने घर में विविध क्रीड़ाएँ करती प्रत्यक्ष रति के समान मंत्रीश्वर की पुत्री को देखा, इससे राजा ने अनुचर से पूछा-यह किसकी पुत्री है? उसने कहा-हे देव! यह मंत्रीश्वर की पुत्री है फिर उसके प्रति रागी हुए राजा ने स्वयं विविध रूप में मंत्री से याचना की, उससे विवाह किया और उसी समय ही उसे अंतःपुर में दाखिल कर दिया। अन्यान्य श्रेष्ठ स्त्रियों को सेवने में आसक्ति से राजा उसे भूल गया, फिर बहुत समय के बाद उसे आले-गवाक्ष में बैठी देखकर राजा ने पूछा, चन्द्र समान प्रसरती कान्ति के समूह वाली, कमल समान आँख वाली और लक्ष्मी समान सुंदर यह युवती स्त्री कौन है? कंचुकी ने कहा-हे देव! यह तो मंत्री की पुत्री है कि जिसको आपने पूर्व में विवाह कर छोड दिया है. ऐसा कहने से राजा उस रात्री को उसके साथ रहा और ऋतु स्नान वाली होने से उस दिन ही उसे गर्भ रहा। फिर पूर्व में मन्त्री ने उससे कहा था कि- 'हे पुत्री! तुझे गर्भ प्रकट हो वह और तुझे राजा जब जो कुछ कहे वह तूं तब-तब मुझे कहना' इससे उसने सारा वृत्तान्त पिता से कहा, उसने भी राजा के विश्वास के लिए भोज पत्र में वह वृत्तान्त लिखकर रख दिया, फिर प्रतिदिन प्रमाद रहित पुत्री की सार संभाल करने लगा। पूर्ण समय पर उसने पुत्र को जन्म दिया और उसका सुरेन्द्रदत्त नाम रखा। उसी दिन वहाँ अग्नियक, पर्वतक, बहली और सागरक नाम से चार अन्य भी बालक जन्मे थें। मन्त्री ने कलाचार्य के पास सुरेन्द्रदत्त को पढ़ने भेजा। वह उन बालकों के साथ विविध कलाएँ पढ़ रहा था। इस ओर श्रीमाली आदि उस राजा के पुत्र अल्प भी नहीं पढ़े, उल्टे कलाचार्य अल्प भी मारते तो वे रोते और अपनी माता को कहते कि-'इस तरह हमें उसने मारा' फिर क्रोधित हुई रानियों ने उपाध्याय से कहा कि-अरे मारनेवाले पंडित! हमारे पुत्रों को पढ़ने के लिए क्यों मारता है? पुत्र रत्न जैसे-वैसे नहीं मिलते हैं, इतना भी क्या तूं नहीं 1. "पढमं नाणं तओ दया" 2. "अन्नाणी किं काही" - श्री दशवैकालिक सूत्र - 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy