SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला शाला परिकम द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-शिक्षा नामक तृतीय द्वार मर्यादानुसार शुद्ध और अखण्ड अध्ययन करना चाहिए। फिर सुसाधु के पास उसको अर्थ से सम्यग् सुनना चाहिए। आत्मा में अनुबन्ध और स्थिरीकरण करने के लिए एक बार पढ़ा हुआ सूत्र का और सुने हुए अर्थ का भी जिन्दगी तक प्रयत्नपूर्वक बार-बार चिंतन-अनुप्रेक्षण करना चाहिए। श्रुत ज्ञान का लाभ : ___ मैंने अति पुण्य से यह कोई परम तत्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे निरवद्य भाव से उस सूत्र का बहुत मान करे, सर्व प्रकार से कल्याण करने वाला, सद्गति के मार्ग का प्रकाशक और भगवंत के उस श्री जैन प्रवचन का कल्याण हो कि जिससे ये गुण प्रकट हो गये हैं। ज्ञान से आत्महित का होश, भाव संवर, नया-नया संवेग दृढ़ता तप, भावना, परोपदेशत्व, और जीव, अजीव-आश्रव आदि तात्त्विक सर्व भाव का तथा इस जन्म, परभव सम्बन्धी आत्मा का हित-अहित आदि सम्यक् समझ में आता है। आयहियमयाणंतो मुज्झइ मूढो सामाइवइ पावं। पावनिमित्तं जीवो भमइ भवसायरमणंतं ।।१३३९।। आत्महित से अज्ञ मूढ़ जीव उलझन में पड़ता है, पापों को करता है और पापों के कारण अनन्त संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है ।।१३३९।। क्योंकि आत्महित को जानने से ही अहित से निवृत्ति और हित में प्रवृत्ति होती है, इसलिए हमेशा आत्महित को जानना चाहिए। और स्वाध्याय को करने वाला पांचों इन्द्रियों के विकारों को संवर करने वाला, तीन गुप्ति से गुप्त बनकर राग द्वेषादि घोर अशुभ भावों को रोकता है। जह जह सुयमवगाहइ अतिसयरसपसरनिब्भरमउ व्वं। तह तह पल्हाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए।।१३४२।। जैसे-जैसे इसके अतिशय विस्तारपूर्वक तात्त्विक नये-नये श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नयीनयी संवेग की श्रद्धा होने से मुनि को महानन्द प्राप्त होता है ।।१३४२।। और लाभ, हानि की विधि को जानने वाला, विशुद्ध लेश्या वाला और स्थिर मन वाला वह ज्ञानी जिन्दगी तक ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप में मनोरंजन आनंदानुभव करता है। कहा है कि-श्री अरिहंत देव के द्वारा कहा हुआ बाह्य, अभ्यन्तर बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय समान तप धर्म न है और नहीं होने वाला है। स्वाध्याय का चिंतन करने से जीव की सर्व गुप्तियाँ भाव वाली बनती है। और भाव वाली गुप्तियों से जीव अंतिम समय में आराधक बनता है। परोपदेश देने से स्व पर का उद्धार होता है, जिनाज्ञा प्रति वात्सल्य जागृत होता है, शासन की प्रभावना, श्रुत भक्ति और तीर्थ का अविच्छेद होता है। और अनादि के अभ्यास से उपदेश बिना भी लोग काम और अर्थ में तो कुशल है, परन्तु धर्म तो ग्रहण शिक्षा रूपी ज्ञान बिना नहीं होता है, इसलिए इसमें प्रयत्न करना चाहिए। यदि अन्य मनुष्यों को धन आदि में अविधि करने से उसका धन आदि का अभाव ही होता है तो रोग, चिकित्सा के दृष्टान्त से धर्म में भी अविधि अनर्थ के लिए होती है। इसलिए धर्मार्थी ग्रहण शिक्षा में हमेशा प्रयत्न वाला होना चाहिए। क्योंकि मोहान्ध मनुष्यों को उस ज्ञान का प्रकाश धर्म प्रवृत्ति में प्रेरक बनता है। जगत में ज्ञान चिन्तामणि है, ज्ञान श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है, ज्ञानविश्वव्यापी चक्षु है, और ज्ञान धर्म का साधन है। जिसको इसमें बहुमान नहीं है उसकी धर्म क्रिया लोक में जाति अंध (जन्म से अंध) को नाटक देखने की क्रिया के समान निष्फल है। और ज्ञान बिना जो स्वेच्छाचार से कार्य में प्रवृत्ति करता है वह कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है, सुखी नहीं होता अर्थात् उसकी श्रेष्ठ गति नहीं है। अतः कार्य सिद्धि की इच्छावाले को प्रमाद छोड़कर प्रथम से ही सदा ज्ञान को ग्रहण करने में सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए और प्रस्तुत विषय में शास्त्रोक्त सर्व नयों का विविध मतों का संग्रह रूप ज्ञाननय और क्रियानय नाम के दो ही नय हैं। 1. नऽवि अत्थि नऽवि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ।।१३४४ उत्तरार्ध।। 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy