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परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार और उसके भेद
श्री संवेगरंगशाला
जन्म में थोड़ा कुछ भी जिएँ तब तक पाँच प्रकार के विषयों का सेवन करें। इस प्रकार उसने विचारपूर्वक कोमल वाणी द्वारा कहने से संक्षोभ हुए उसने धैर्य छोड़कर दीक्षा का त्याग किया।
___ इससे अत्यन्त प्रसन्न मन वाली वह उसे साथ ले अशोकचन्द्र राजा के पास पहुँची और चरणों में गिरकर उसने विनती की कि-हे देव! वह यही कुलवालक मुनि मेरा प्राणनाथ है, इसलिए अब इसके द्वारा जो करवाना हो उसकी आज्ञा दीजिए। राजा ने कहा-हे भद्र! तूं ऐसा कार्य कर कि जिससे यह नगर नष्ट हो जाये, तब उसने आज्ञा को स्वीकारकर त्रिदण्डी का रूप धारणकर वह नगर में गया, वहाँ फिरते उसने श्रीमुनि सुव्रत स्वामी का स्तूप देखकर विचार किया कि-निश्चय ही इस स्तूप के प्रभाव से ही नगरी नष्ट नहीं होती है। इसलिए में ऐसा
से नगरवासी मनष्य स्वयं ही इस स्तप का नाश करें. ऐसा सोचकर उसने कहा-अरे लोगों! यदि इस स्तूप को दूर करो तो शीघ्र ही शत्रु सैन्य स्वदेश में चला जायगा, नहीं तो जिन्दगी तक नगरी का घेराव नहीं उठेगा। इस तरफ राजा को भी संकेत किया जब लोग स्तूप को तोड़ें तब तुम्हें भी समग्र अपनी सेना को लेकर दूर चले जाना। फिर लोगों ने पूछा-हे भगवन्! इस विषय पर विश्वास कैसे होगा? उसने कहा-स्तूप को थोड़ा तोड़कर देखो, शत्रु सैना दूर जाती है या नहीं जाती, इस बात का विश्वास हो जायगा। ऐसा कहने से लोग ने स्तूप के शिखर के अग्रभाग को तोड़ने लगे इससे शत्रु सैन्य को जाते हुए देखकर विश्वास हो जाने से सम्पूर्ण स्तूप को भी उन्होंने तोड़ दिया और सैन्य वापिस घुमाकर राजा ने नगर पर हमलाकर नगर को काबू कर लिया, लोगों को विडम्बना की, और चेटक राजा जिन प्रतिमा को लेकर कुएं में गिर गया। इस प्रकार सद्गुरु के प्रत्यनिकपने के दोष से कुलवालक मुनि ऐसे पर्वत के समान महापाप राशी का पात्र बना। इस तरह अति दुष्कर तपस्या में रक्त और अरण्यवासी भी वह प्रतिज्ञा भंजक बना, वह सब गुरु के प्रति द्वेष करने का फल जानना। इस कारण से आराधना के योग्य जीवों को गुरुदेव को प्रसन्न करना चाहिए। उसी को आराधना का विशिष्ट लिंग कहा है। अधिक इस विषय पर क्या कहें? इस प्रकार मोक्ष मार्ग के रथ समान परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला में पन्द्रह प्रति द्वार वाला आराधना के प्रथम परिकर्म द्वार का यह दूसरा लिंग अन्तर द्वार कहा है।
पूर्व कहे लिंगों वाला भी शिक्षा बिना सम्यग् आराधना को प्राप्त नहीं करता है, इस कारण से अब शिक्षा द्वार कहते हैं :- ।।१३२४।। तीसरा शिक्षा द्वार और उसके भेद :
वह शिक्षा (१) ग्रहण, (२) आसेवन और (३) तदुभय। इस तरह तीन प्रकार की है, उसमें ज्ञानाभ्यास रूप शिक्षा ग्रहण शिक्षा कहलाती है, और वह साधु तथा श्रावक को भी जघन्य से सूत्रार्थ के आश्रित अल्प बुद्धि वाले को भी आठ प्रवचन माता तक तो ज्ञान होता ही है। उत्कृष्ट से तो साधु को सूत्र से और अर्थ से ग्रहण शिक्षा अष्ट प्रवचन माता आदि से लेकर बिन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व तक ज्ञान होता है। गृहस्थ को भी सूत्र से उत्कृष्ट दशवैकालिक सूत्र के छज्जीवनिकाय चौथे अध्ययन तक और अर्थ से पाँचवां पिंडेषणा अध्ययन तक जानना, क्योंकि प्रवचन माता के ज्ञान बिना निश्चय वह सामायिक भी किस तरह कर सकता है? और छज्जीवनिकाय के ज्ञान बिना जीवों की रक्षा भी किस तरह से कर सकता है? अथवा पिंडेषणा के अर्थ जाने बिना साधु महाराज को प्रासुक और एषणीय आहार, पानी, वस्त्र, पात्र किस तरह दे सकता है? अतः घोर संसार समुद्र को तैरने में नाव तुल्य प्रशस्त गुण के प्रकट प्रभाव वाला, पुण्यानुबन्धी पुण्य का कारण, परम कल्याण आदि स्वरूप वाला और अन्त में भी मधुर हितकर प्रमादरूपी दृढ़ पर्वत को तोड़ने में वज्र समान पापरहित और जन्म-मरण रूपी रोगों को नाश करने के लिए मनोहर रसायण की क्रिया सदृश श्री जैन प्रवचन के प्रथम सूत्र से स्व-स्व
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