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श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-इन्द्रदन के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा जानता है? हे अत्यन्त मूढ़! तेरे पढ़ाने की निष्फल क्रिया से क्या प्रयोजन? क्योंकि तूं पुत्रों को मारने में थोड़ी भी दया नहीं करता है? इस प्रकार उनके कठोर वचनों से तिरस्कृत हुए गुरु ने पुत्रों की उपेक्षा की। इससे राजपुत्र अत्यन्त महामूर्ख रहें। परन्तु इस व्यतिकर को नहीं जानते हुए राजा मन में मानता था कि-इस नगर में मेरे श्रेष्ठ पुत्र ही अत्यन्त कुशल हैं। इधर वह समान उम्र वाले बच्चों के पराभव को सहन करते सुरेन्द्रदत्त ने सकल कलाओं का अध्ययन किया।
एक समय मथुरा नगरी में पर्वतराज ने अपनी पुत्री से पूछा-पुत्री! तुझे जो वर पसंद हो उसे कह, जिससे उसके साथ तेरा विवाह करें, उसने कहा-हे तात! इन्द्रदत्त के पुत्र कला कुशल, शूरवीर, धीर और अच्छे रूप वाले सुने जाते हैं। यदि आप कहें तो स्वयंमेव वहाँ जाकर राधावेध द्वारा मैं उसमें से एक की अच्छी तरह परीक्षा कर उसको स्वीकार करूँ। राजा ने वह स्वीकार किया, तब उसने बहुत राजऋद्धि के साथ इन्द्रपुर नगर में जाने के लिए प्रस्थान किया। उसे आते सुनकर प्रसन्न हुए इन्द्रदत्त राजा ने अपनी नगरी को विचित्र ध्वजाओं को बंधवाकर सुशोभित करवाया। उस कन्या को आने के बाद सुन्दर ठहरने का स्थान दिया, और भोजन आदि की उचित व्यवस्था की, उसने राजा को निवेदन किया कि तुम्हारे जो पुत्र राधा को बींधेगा, वही मेरे साथ शादी करेगा, इसी कारण से मैं यहाँ आयी हूँ। राजा ने कहा-हे सुतनु! एक ही गुण से तूं परीक्षा में प्रसन्न नहीं होना क्योंकि मेरे सारे पुत्र प्रत्येक श्रेष्ठ गुण वाले हैं। उसके बाद शीघ्र उचित प्रदेश में बायें दाहिने घूमते चक्र की पंक्ति वाला मस्तक पर राधा को धारण करता बड़ा स्तंभ खड़ा किया और वहाँ अखाड़ा बनाया, मंच तैयार कियें, चन्द्रवें बाँधे गयें, और हर्ष पूर्वक उछलते गात्र वाला राजा आकर वहाँ बैठा। नगर निवासी आयें, राजा ने अपने पुत्रों को बुलाया, और वह राजपुत्री भी वरमाला को लेकर आयी। उसके बाद सर्व में बड़े श्रीमाल से राजा ने कहा-हे वत्स! यह कार्य करके मेरे मनोवांछित को सफल करों, निज कुल को उज्ज्वल करों, पवित्र राज्य की परम उन्नति दिखाओं, जय पताका को ग्रहण करों और शत्रुओं की आशाओं को खत्म कर दों, इस तरह कुशलता से शीघ्र राधावेध कर तूं प्रत्यक्ष राजलक्ष्मी सदृश यह निवृत्ति नाम की राजपुत्री को प्राप्त कर। ऐसा कहने से वह राजपुत्र क्षोभित होते नष्ट शोभा वाले पसीने से भीगे हुए, चित्त से शून्य बनें, दीन मुख और दीन चक्षु वाले, घबराहट के साथ ।।१४०० ।। निस्तेज शरीर वाला, सत्त्व या मर्दानगी से मुक्त, लज्जा युक्त, अभिमान गौरव रहित, नीचे देखता, पुरुषार्थ को छोड़ते दृढ़ बाँधा हो इस तरह स्तम्भ के समान स्थिर खड़ा रहा, पुनः भी राजा ने कहा-हे पुत्र! संक्षोभ को छोड़कर इच्छित कार्य को सिद्ध कर, तूझे इस कार्य में उलझन क्यों है? हे पुत्र! जो संक्षोभ करता है वह कलाओं में अति निपुण नहीं होता है, निष्कलंक कलाओं के भण्डार रूप तेरे जैसे को संक्षोभ किस लिए? राजा के ऐसा कहने से धिट्ठाई (कठोरता) पूर्वक अल्प भी चतुराई बिना श्रीमाली ने काँपते हाथों द्वारा मुश्किल से धनुष्य को उठाया और शरीर का सर्व बल एकत्रित कर मुसीबत से उसके ऊपर बाण चढ़ाकर 'जहाँ जाय वहाँ भले जाय' ऐसा विचारकर लक्ष्य बिना बाण को छोड़ा। वह बाण स्तम्भ से टकराकर शीघ्र टूट गया, इससे अति कोलाहल करते लोग गुप्त रूप में हँसने लगे। इस तरह कला रहित शेष इक्कीस राजपुत्रों ने भी जैसेतैसे बाण फेंका, एक से भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ।
इस कारण से लज्जा द्वारा आँखें बन्द हो गयी है जिसकी, वज्रमय इन्द्र धनुष्य से ताड़न किया गया हो इस तरह निस्तेज मुख वाला, निराश बना राजा शोक करने लगा। तब मन्त्री ने कहा-हे देव! शोक को छोड़ दो, आपका ही दूसरा पुत्र है, इससे अब उसकी भी परीक्षा करो। राजा ने कहा-दूसरा पुत्र कौन है? तब मन्त्री ने भोजपत्र दिया, उसे पढ़कर राजा बोला-इससे भी क्या प्रयोजन? बहुत पढ़े हुए भी ये पापियों के समान कार्य को
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