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परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-आसेवन शिक्ष का वर्णन
श्री संवेगरंगशाला सिद्ध नहीं कर सके, उसी तरह वह भी वैसे ही करेगा, ऐसे पुत्रों द्वारा मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो! ऐसा होते हुए भी यदि तेरा आग्रह हो तो उस पुत्र की योग्यता को भी जान लो। इससे मन्त्री ने उपाध्याय सहित सुरेन्द्रदत्त को बुलाया, उसके बाद शस्त्र विद्या के परिश्रम से शरीर में चिह्न वाले उसे गोद में बैठाकर प्रसन्न हुए राजा ने कहाहे पत्र! राधावेध करके मेरी इच्छा को तं पूर्ण कर और निवत्ति नाम की राजकन्या से विवाह कर, राज्य को प्राप्त कर। तब राजा और अपने गुरु को नमन कर धीर सुरेन्द्रदत्त युद्ध के योग्य मुद्रा बनाकर धनुष्यदण्ड ग्रहण कर निर्मल तेल से भरे कुण्ड में प्रतिबिम्बित हुए चक्रों के छिद्रों को देखते, दूसरे राजकुमारों द्वारा तिरस्कृत होते, गुरु के द्वारा प्रेरणा कराते अग्नियक आदि सहपाठी बच्चों से भी उपद्रव होते और 'यदि निशाना चूक जायगा तो मार दूंगा' ऐसा बोलते खुली तलवार वाले पास दो पुरुषों से बार-बार तिरस्कृत होते, फिर भी सर्व की उपेक्षाकर लक्ष्य सन्मुख स्थिर दृष्टि वाला और महा मुनीन्द्र के समान स्थिर मनवाले उसने चक्रों की चाल को निश्चित करके बाण से राधा का शीघ्र वेधन कर दिया, और राधा के वेधन से प्रसन्न बनी उस राजपुत्री ने उसके गले में वरमाला पहनाई, राजा को आनन्द हुआ, और सर्वत्र जय-जय शब्द उछलने लगे। राजा ने विवाह महोत्सव किया, और राज्य भी उसे दिया। इस तरह सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञान से गौरवता को प्राप्त किया ।।१४२१।। इस प्रकार ज्ञाननय के मत में इस जन्म और दूसरे जन्म के सुख देने में सफल कारण है। इसलिए ग्रहण शिक्षा में ही, ज्ञान अभ्यास में ही, सदा उद्यम करना चाहिए। क्योंकि ग्रहण शिक्षा बिना का अनपढ़ मनुष्य क्रिया करने पर भी कला में अत्यंत मूढ़ रहता है। श्रीमाल आदि राजपत्रों के समान जनसमूह में आदर पात्र नहीं बनता है। इस प्रकार ग्रहण शिक्षा जानना। अब पूर्व में प्रस्तावित क्रिया कला रूप आसेवन शिक्षा कहते हैं ।।१४२४।। आसेवन शिक्षा का वर्णन :
इस आसेवन शिक्षा के बिना जंगल में उत्पन्न हुए मालती के पुष्पों के समान और विधवा के रूप आदि गुण समूह के समान ग्रहण शिक्षा निष्फल होती है। और मन, वचन, काया के तीन योग से आसेवन शिक्षाक्रिया को सम्यग् रूप से आचरण करने वाले को ही ग्रहण शिक्षा रूपी ज्ञान प्रकट होता है अन्यथा प्रकट नहीं होता है। उसे प्रकट होने के कारण ये हैं-गुरु चरणों की सेवाकर गुरु को प्रसन्न करने से, सभी व्याक्षेप त्याग करने के प्रयत्न से, और शुश्रूषा, प्रतिपृच्छा आदि बुद्धि के आठ 'गुणों के प्रयोग करने से बहु, बहुतर और बहुतम बोध होने द्वारा ग्रहण शिक्षा परम उत्कृष्टता प्राप्त करती है। अन्यथा श्रीमाली आदि के समान निश्चय ही उत्कृष्टता को प्राप्त नहीं करती। अर्थात् ज्ञान पढ़ने के लिए भी विनय आदि क्रियारूप आसेवन शिक्षा पहले ही करनी होती है, और ग्रहण शिक्षा पढ़ने के बाद भी क्षण-क्षण मन, वचन, काया की क्रिया से उसका आसेवन किया जाता है तभी वह ज्ञान बढ़ता है और स्थिर होता है। इसलिए यदि आसेवन शिक्षा हो तभी उसके प्रभाव से भव्य जीवों को ग्रहण शिक्षा न होने पर भी ग्रहण शिक्षा प्राप्त होती है और आसेवन शिक्षा न हो तो विद्यावान की ग्रहण शिक्षा नाश होती है। इस प्रकार सर्व सुख की सिद्धि में बुनियादी रूप से और संसार वृक्ष का नाश करने के लिए अग्नि समान उसी एक आसेवन शिक्षा को नमस्कार हो!
__ इस विषय में क्रियानय का मत इस प्रकार है कि जो कार्य का अर्थी हो उसे सर्व प्रकार से नित्यमेव क्रिया में ही सम्यग् उद्यम करना चाहिए। वह इस प्रकार से हेय-उपादेय अर्थों को जानकर उभय लोक के फल की सिद्धि को चाहने वाले बुद्धिमान को यत्नपूर्वक क्रिया करने में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि-प्रवृत्ति रूप 1. १. शुश्रुषा २. प्रतिपृच्छा, ३.सुनना, ४. ग्रहणकरना, ५. इहा (चिंतन करना), ६. अपोह (निश्चय करना), ७. धारण करना, ८. सम्यग
आचरण करना।
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