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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- शिक्षा नामक तीसरा द्वार-ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता प्रयत्न बिना ज्ञानी को भी इस संसार में अभिलषित वस्तु की सिद्धि होती नहीं दिखती है, इसीलिए अन्य मतवाले भी कहते हैं कि 'क्रिया ही फलदायी है, ज्ञान नहीं है।' संयम, अर्थ और विषयों का अति निपुण विज्ञाता ज्ञानी भी उस उस क्रिया के ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता है। प्यासा भी पानी आदि को देखकर भी जब तक उसे पीने आदि की क्रिया में प्रवृत्ति नहीं करता तब तक उसे तृप्ति रूप फल नहीं मिलता है। सन्मुख इष्ट रस का भोजन पड़ा है। स्वयं पास बैठा हो परन्तु हाथ को नहीं चलाए तो ज्ञानी भी भूख से मर जाता है। अति पंडित भी वादी प्रतिवादी को तुच्छ मानकर वाद के लिए राजसभा में गया हो, यदि वहाँ कुछ नहीं बोले तो धन और प्रशंसा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस प्रकार इस लोक के हित के लिए जो विधि कही है वही विधि जन्मान्तर के फलों के लिए जानना, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि - तप संयम में जो क्रिया वाला (उद्यमी है ) है उसने चैत्य, कुल, गुण, संघ और आचार्यों में तथा प्रवचन श्रुत इन सब में भी जो करने योग्य है वह सब किया अर्थात् उसने सबकी सेवा की । जिस तरह क्षायोपशमिक चारित्र का फल है उसी तरह ही क्षायिक चारित्र का भी सुंदर फल साधकत्व जानना। क्योंकि केवलज्ञान को प्राप्त करने पर भी श्री अरिहंत देव को भी केवलज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है जब तक समस्त कर्मरूपी ईंधन को अग्नि समान अन्तिम विशुद्ध को करने वाली पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चार मात्र काल जितनी स्थिति वाले सर्व आश्रवों का संवर रूप और इस संसार में कभी पूर्व में प्राप्त नहीं किया हुआ अन्तिम क्रिया जिसमें मुख्य है वह चारित्र शैलेशीकरण - क्रिया प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् भगवान को केवलज्ञान के बाद भी मुक्ति पुरी में जाने के लिए शैलेशीकरण की क्रिया करनी पड़ती है। वह क्रिया भी उन्हें आवश्यक है। इस विषय में भी उदाहरण उस सुरेन्द्रदत्त का ही जानना । यदि वह जानकार होने पर भी राधावेध रूप क्रिया नहीं करता तो दूसरों के समान तिरस्कार पात्र बनता। इसलिए इस लोक-परलोक के फल की प्राप्ति में अवन्द्यकारण आसेवन शिक्षा ही है, अतः उसमें प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए । ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता : इस तरह ज्ञान, क्रिया इन दोनों नयों द्वारा उभय पक्ष में भी कही हुई शास्त्रोक्त विविध युक्तियों का समूह सुनकर जैसे एक ओर पुष्ट गन्ध से मनोहर खिले हुए केतकी का फूल और दूसरी ओर अर्ध विकसित मालती की कली को देखकर उसके गन्ध से आसक्त भौंरा आकुल बनता है वैसे उस उस स्व-स्व स्थान में युक्ति के महत्त्व को जानकर मन में बढ़ते संशय की भ्रांति में पड़ा हुआ शिष्य पूछता है कि-ज्ञान या क्रिया के विषय में तत्त्व क्या है ? गुरु महाराज ने कहा अन्योन्य सापेक्ष होने से ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा दोनों तत्त्व रूप हैं, क्योंकि यहाँ ग्रहण शिक्षा अर्थात् ज्ञान बिना आसेवन शिक्षा अर्थात् क्रिया सम्यग् नहीं होती और आसेवन शिक्षा बिना ग्रहण शिक्षा भी सफल नहीं होती। क्योंकि यहाँ श्रुतानुसार जो प्रवृत्ति वही सम्यक् प्रवृत्ति है, इसलिए यहाँ सूत्र, अर्थ के ग्रहण - ज्ञानपूर्वक जो क्रिया उसे मोक्ष की जनेता कहा है। और जो तप संयममय जो योग क्रिया को वहन नहीं कर सकता वह श्रुत ज्ञान में प्रवृत्ति करने वाला भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। कहा है कि "जैसे दावानल देखता हुआ भी पंगु होने से जलता है और दौड़ता हुआ भी अंध होने से जलता है वैसे क्रिया रहित ज्ञान और ज्ञान बिना की क्रिया भी निष्फल जानना' (यह विशेष आवश्यक का ११५९वाँ श्लोक है।) 'ज्ञान और उद्यम दोनों का संयोग सिद्ध होने से फल की प्राप्ति होती है' लोक में भी कहा जाता है कि 'एक चक्र से रथ नहीं चलता, अंधा और पंगु होने पर भी वन में दोनों परस्पर सहायक होने नगर में पहुँचते हैं।' 2' ज्ञान नेत्र समान 1. हयं नाणं किरिया हीणं हया अन्नाणओ किरिया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ।। १४५४ ।। 2. संजोग सिद्धीए फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । [ अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्टा || १४५५ || 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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