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________________ परिकर्म द्वार - शिक्षा द्वार-मथुरा के मंगु आचार्य की कथा श्री संवेगरंगशाला है और चारित्र चलने की प्रवृत्ति समान है, दोनों का सम्यग् योग होने पर श्री जिनेश्वर देवों ने शिवपुर की प्राप्ति कही है।' इस तरह मुनियों के लिए भी दोनों शिक्षाओं के उपदेश का वर्णन किया है। श्रमणोपासक श्रावक को तो उसमें सविशेष प्रयत्न करना ही चाहिए। इसीलिए ही प्रशंसा की जाती है कि- वही पुरुष जगत धन्य है कि जो नित्य अप्रमादी ज्ञानी और चारित्र वाला है। क्योंकि परमार्थ के तत्त्व को अच्छी तरह जानने से और तप-संयम गुणों को अखण्ड पालने से कर्म समूह का नाश होते विशिष्ट गति - मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए चतुर पुरुष ज्ञान से प्रथम लक्ष्य पदार्थ का लक्ष्य जानकर फिर लक्ष्य के अनुरूप क्रिया का आचरण करें। यदि इसमें क्रिया रहित ग्रहण शिक्षा एक ही सफल होती हो तो श्रुतनिधि मथुरा के मंगु आचार्य भी ऐसी दशा को प्राप्त नहीं करते।।१४६१।। वह इस प्रकार है मथुरा के मंगु आचार्य की कथा मथुरा नगरी में युगप्रधान और श्रुतनिधान, हमेशा शिष्यों को सूत्र अर्थ पढ़ाने में नियत प्रवृत्ति वाले और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने में परिश्रम की भी परवाह नहीं करने वाले, लोक प्रसिद्ध आर्यमंगु नामक आचार्य थें । परन्तु यथोक्त क्रियाएँ नहीं करने से, सुखशील बनें वे श्रावकों के रागी होकर तीन गारव के वश हो गयें, भक्तों द्वारा हमेशा उत्तम आहार, पानी, वस्त्र आदि मिलने से वे अप्रतिबद्ध विहार छोड़कर चिरकाल तक वहीं रहने लगें। उसके बाद साधुता में शिथिल आचार्य वह बहुत प्रमाद का सेवन कर और अपने दोषों की प्रायश्चित्त रूप शुद्धि नहीं करने से आयुष्य पूर्ण होने से मरकर अत्यन्त चंडाल तुल्य किल्विष यक्ष होकर उसी नगर के नाले के पास यक्ष के भवन में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए । विभंग ज्ञान से पूर्व जन्म को जानकर वह यक्ष चिंतन करने लगा कि अहो! पापी बनें मैंने प्रमाद से मदोन्मत्त होकर विचित्र अतिशयों रूपी रत्नों से भरे जिन शासन रूपी निधान को प्राप्तकर उसमें कही हुई क्रिया से परांगमुख बनकर उसे निष्फल गँवा दिया। मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल आदि सुधर्म के हेतुभूत सामग्री एवं प्रमाद से गँवायें हुए चारित्र को अब कहाँ प्राप्त करूँगा? हे पापी जीव ! उस समय शास्त्रार्थ के जानकार होते हुए भी तूंने ऋद्धि-रस और शाता गारव का विरसत्व क्या नहीं जाना था? अब चंडाल समान यह किल्विष देव भव को प्राप्तकर मैं दीर्घकाल तक विरति प्रधान धर्म के लिए अयोग्य बना। मेरे शास्त्रार्थ के परिश्रम को धिक्कार हो ! बुद्धि की सूक्ष्मता को धिक्कार हो ! और अत्यन्त परोपदेश पांडित्य को धिक्कार हो ! वेश्या के श्रृंगार के समान केवल दूसरे के चित्त को प्रसन्न करने के लिए हमेशा भावरहित क्रिया को भी धिक्कार हो । इस तरह वैरागी बनकर वह प्रतिक्षण अपने दुश्चारित्र की निन्दा करते कैदखाने में बन्द के समान दिन व्यतीत करने लगा। फिर उस मार्ग से हमेशा स्थंडिल जाते अपने शिष्यों को देखकर उनको प्रतिबोध करने के लिए वह यक्ष की प्रतिमा के मुख में से लम्बी जीभ बाहर निकालकर रहने लगा। प्रतिदिन उसे इस तरह करते देखकर मुनियों ने कहा कि - यहाँ पर कोई भी देव, यक्ष, राक्षस अथवा किन्नर हो जो हमें कहना हो वह प्रकट रूप से कहो, इस तरह तो हम कुछ भी नहीं समझ सकते। इससे खेदपूर्वक यक्ष ने कहा- हे तपस्वियों ! वह मैं क्रिया का चोर तुम्हारा गुरु आर्य मंगु हूँ। यह सुनकर उन्होंने खेदपूर्वक कहा - हा ! श्रुतनिधि! दोनों शिक्षा में अति दक्ष आपने नीच यक्ष की योनि को कैसे प्राप्त किया? यह महान आश्चर्य है। उसने कहा- हे महाभाग साधुओं! इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। सद्धर्म की क्रिया के कार्यों में शिथिल, श्रावकों में राग करने वाला, ऋद्धि, रस और शाता गारव से भारी बना, शीतल विहारी, मेरे जैसे रसनेन्द्रिय से हारे हुए की यही गति होती है। इस तरह 67 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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