________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार- शिक्षा द्वार- अंगारमर्दक आचार्य की कथा-ग्रहण- आसेवन शिक्षा के भेद
मेरी कुत्सित देवयोनि को जानकर हे महासात्त्विक साधुओं! यदि सद्गति का प्रयोजन हो तो दुर्लभ संयम को प्राप्तकर तुम प्रमाद के त्यागी बनों, काम रूपी यौद्धा को जीतने वाले, चरण-करण गुण में रक्त, ज्ञानियों की विनय भक्ति करने वाले, ममत्व के त्यागी और मोक्ष मार्ग में आसक्त होकर उपधि, आहार आदि अल्प लेकर प्राणियों की रक्षा करते विचरण करों । शिष्यों ने कहा- भो देवानुप्रिय ! आपने हमें अच्छे जागृत किये, ऐसा कहकर मुनि संयम में उद्यमशील बनें। इस तरह आसेवन शिक्षा के बिना पूर्ण ग्रहण शिक्षा भी किसी रूप में सद्गति वांछित फल साधक नहीं बनती है, और सम्यग् ज्ञान बिना की आसेवन शिक्षा भी सम्यग् ज्ञान बिना के अंगार मर्दक के समान हितकर नहीं । । १४८७ ।। उसकी कथा इस प्रकार है :
अंगारमर्दक- आचार्य की कथा
गर्जनक नाम का नगर था, वहाँ उत्तम साधुओं के समुदाय से युक्त सद्धर्म में परायण श्रीविजयसेनसूरिजी मासकल्प से स्थिर रहे थें । रात्री के अंतिम समय में उनके शिष्यों ने स्वप्न देखा कि 'निश्चय से पाँच सौ हाथीओं
बच्चों से शोभित सूअर ने मकान में प्रवेश किया ।' उसके बाद विस्मित मन वाले उन्होंने स्वप्न का भावार्थ सूरिजी से पूछा। उन्होंने कहा- हाथी समान उत्तम साधुओं के साथ में सूअर के समान अधम गुरु आयेगा । फिर सूर्य उदय हुआ तब सौम्य ग्रहों के साथ शनि के समान और कल्पवृक्षों के खण्ड समूह में एरण्डवृक्ष समान पाँच सौ मुनियों के साथ रुद्रदेव नाम के आचार्य आयें। साधुओं ने उनकी सर्व उचित सेवा भक्ति की, फिर सूअर की परीक्षा के लिए स्थानिक मुनियों ने गुरु के कहने से रात में मात्रा परठने की भूमि पर कोयले डलवाकर, गुप्त प्रदेश में खड़े होकर देखते रहें, साधक साधु जब मात्रा की भूमि चले तब कोयले पर पैर का आक्रमण होने से किसकिस इस तरह शब्द उत्पन्न हुआ। उसे सुनकर ही खेद करने लगे। बार-बार मिच्छा मि दुक्कडं देकर हा ! ऐसा यहाँ क्या हुआ? ऐसा बोलते कोयले के उस किस-किस आवाज के स्थान पर 'यहाँ क्या है? वह सुबह सूर्य उदय के पश्चात् देखेंगे' ऐसी बुद्धि से निशानी लगाकर जल्दी ही वापिस लौट आयें, उसके बाद उनके गुरु वह किस-किस शब्द होने से प्रसन्न हुए 'अहो ! श्री जिनेश्वरों ने इसमें भी जीव कहा है।' ऐसा बोलते जिन की हंसी करते कोयले को पैर से जोर से दबाते हुए मात्रा की भूमि में गये, और यह बात उन शिष्यों ने अपने आचार्य को कही, उन्होंने भी कहा - हे तपस्वियों ! वह यह गुरु सूअर समान और उसके शिष्य महामुनि हाथी के बच्चों के समान हैं। उसके बाद प्रसंग पर श्री विजयसेन सूरिजी ने श्रेष्ठ साधुओं को जैसा देखा था वैसा हेतु और युक्तियों से समझाकर कहा कि । । १५०० । । - भो महानुभावों! यह तुम्हारा गुरु निश्चित ही अभव्य है, अतः यदि मोक्ष की अभिलाषा वाले हो तो शीघ्रमेव इसका त्याग करो। क्योंकि उल्टे पंथ पर चढ़े हुए मन्द बुद्धि वाले गुरु का भी त्याग नहीं करने से, उन्हें दोष का प्रसंग आता है। इसलिए विधिपूर्वक उसका त्याग करना योग्य है। ऐसा सुनकर उन्होंने उपायपूर्वक शीघ्र उसे छोड़ दिया और उग्रतप विशेष करते उन्होंने देव लक्ष्मी स्वर्ग को प्राप्त की। वह अंगारमर्दक पुनः कष्टकारी क्रियाओं में तत्पर होने पर भी सद्ज्ञान रहित होने से चिरकाल संसार में दुःखी हुआ । इसलिए हे देवानुप्रिय ! आराधना की इच्छा करने वाले तुम ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा रूप दोनों शिक्षाओं में भी सम्यक् प्रयत्न करो।
ग्रहण - आसेवन शिक्षा के भेद :
इस तरह उस उभय शिक्षा के पुनः दो-दो भेद होते हैं, एक सामान्य आचरण स्वरूप और दूसरा
1. जम्हा गुरुणो वि हु उप्पहम्मि लग्गस्स मुढबुद्धिस्स । चागो विहिणा जुत्तो, इहरा दोसप्पसंगाओ || १५०२ ।।
68
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.