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________________ परिकर्म द्वार-शिक्षा द्वार-साधु अ गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म 'श्री संवेगरंगशाला सविशेष आचरण स्वरूप है, उस प्रत्येक के भी (१) साधु सम्बन्धी और (२) गृहस्थ सम्बन्धी दो प्रकार का जानना। इसमें प्रथम गृहस्थ की सामान्य आचार रूप आसेवन शिक्षा को कहता हूँ। साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म : लोक निन्दा करे ऐसे व्यापार का त्याग, मन कलुषित-रहित, सद्धर्म क्रिया के परिपालन रूपी धर्म रक्षण में तल्लीन, शंख की कान्ति समान निष्कलंक, महासमुद्र सदृश गम्भीर अर्थात् हर्ष, शोक से रहित, चन्द्र की शीतल चाँदनी समान, कषाय रहित जीवन, हिरनी के नेत्र समान निर्विकारमय निर्मल आँखों वाला और ईख की मधुरता सदृश जगत में प्रियता, व्यवहार शुद्धि इत्यादि जिनोक्त मार्गानुसारी जो कि उत्तम श्रावक कुल में जन्म के प्रभाव से श्रावक को सहज सिद्ध होती है, फिर भी इस तरह इन गुणों में विशेषता जानना। ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध की सेवा, शास्त्र का अभ्यास, परोपकारी उत्तम चारित्र वाले मनुष्यों की प्रशंसा, दाक्षिण्य परायणता, उत्तम गुणों का अनुरागी, उत्सुकता का त्याग, अक्षुद्रत्व, परलोक भीरुता, सर्वत्र क्रोध का त्याग, गुरु, देव और अतिथि की सत्कार पूजादि, पक्षपात बिना न्याय का पालन, झूठे आग्रह का त्याग, अन्य के साथ स्नेहपूर्वक वार्तालाप, संकट में सुंदर धैर्यता, सम्पत्ति में नम्रता, अपने गुणों की प्रशंसा सुनकर लज्जा, आत्म-प्रशंसा का त्याग, न्याय और पराक्रम से सुशोभित लज्जालुता, सुंदर दीर्घदर्शिता, उत्तम पुरुषों के मार्ग का आचरण करने वाला, स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा परिपूर्ण पालन करने में समर्थ, प्राणान्त में भी उचित मर्यादा का पालन करने वाला, आसानी से प्रसन्न कर सके ऐसी सरलता, जन-प्रियत्व, परपीड़ा का त्याग, स्थिरता, सन्तोष ही धन वाला, गुणों का लगातार अभ्यास, परहित में एकाग्रता, विनीत स्वभाव, हितोपदेश का आश्रय स्वीकार करने वाला, माता-पिता आदि गुरु वर्ग का और राजा आदि के अवर्णवाद वगैरह नहीं बोलने वाला इस लोक-परलोक के अपाय आदि का सम्यग् रूप से चिंतन करने वाला इत्यादि इस लोक-परलोक में हितकारी गुण समूह को श्रावकों को हमेशा प्रयत्नपूर्वक आत्मा में स्थिर करना चाहिए। इस तरह यह सामान्य आचारों की आराधना गृहस्थ के लिए है, यह सामान्य गुण विशेष आचार में मुख्य हेतु होने से निश्चय ही उन गुणों की सिद्धि में प्रयत्न करते विशेष आचारों की भी सिद्धि हो सकती है। यहाँ प्रश्न होता है कि सामान्य गुणों में आसक्त मनुष्य विशेष गुणों में कैसे समर्थ हो सकते हैं? सरसों को भी उठाने में असमर्थ हो वह मेरुपर्वत को नहीं उठा सकता है। इसका उत्तर देते हैं कि-लोक स्थिति में प्रधान उत्तम साधु भी इसी तरह अपनी भूमिका (शक्ति अनुसार) के योग्य सर्वप्रथम सामान्य आचरण रूप आराधना करे फिर सविशेष आचरण स्वरूप-आसेवन शिक्षा का आचरण करे। (अतः उपरोक्त सामान्य आचरण साधु के लिए भी अपनी साधु चर्या के अनुरूप आचरणा करे।) पूर्व में सूचित उत्तम श्रावक और साधु को दो प्रकार की भी विशेष आसेवन शिक्षा को सम्यग् विभाग संक्षेप में कहा जाता है ।।१५२३।। उसमें भी सामान्य आसेवन शिक्षा के पालन करने से सविशेष योग्यता को प्राप्त करता है। श्री जिनेश्वर भगवान के मत का सम्यग् जानकार गृहस्थ की विशेष आसेवन शिक्षा प्रथम कही जाती है। वह इस प्रकार है :गृहस्थ का विशिष्ट आचार धर्म : प्रतिदिन बढ़ते शुभ परिणाम, (गृहस्थ) घर वालों पर की आसक्ति के परिणाम को अहितकर जानकर, आयुष्य, यौवन और धन को महावायु से डगमगाता केले के पत्ते पर लगे जल बिन्दु के समान क्षण विनश्वर मानकर, स्वभाव से ही विनीत, स्वभाव से ही भद्रिक, स्वभाव से ही परम संवेगी, प्रकृति से ही उदार चित्त वाला, और प्रकृति से ही यथाशक्ति उठाये हुए भार (कार्य) वहन करने में धोरी वृषभ समान, बुद्धिमान सुश्रावक 69 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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