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श्रीसंवेगरंगशाला
ग्रंथकार की प्रशस्ति
ग्रंथकार की प्रशस्ति श्री ऋषभादि तीर्थंकरों में अंतिम भगवान और तीन लोक में विस्तृत कीर्तिवाले चौबीस वें जिनवरेन्द्र अथवा जिन्होंने तेजस्वी अंतरंग शत्रुओं को हराकर 'वीर' यथार्थ नाम प्राप्त किया है और तीन जगत रूपी मंडप में मोह को जीतने से अतुल मल्ल होने से महावीर बने हैं। उनके संयम लक्ष्मी की क्रीड़ा के लिए सुंदर महल तुल्य सुधर्मा नाम से शिष्य हुए और उनके गुणी जन रूप पक्षियों के श्रेष्ठ जम्बूफल समान जम्बू नाम से शिष्य हुए। उनसे ज्ञानादि गुणों की जन्म भूमि समान महाप्रभु प्रभव नामक शिष्य हुआ और उनके बाद भाग्यवंत शय्यंभव भगवान हुए। फिर उस महाप्रभु रूपी वंशवृक्ष के मूल में से साधुवंश उत्पन्न हुआ, परंतु उस वंश वृक्ष से विपरीत हुआ जैसे कि बांस जड़ होता है, साधुवंश में जड़ता रहित चेतन दशा वाला, और वांस ऊपर जाते पतला होता जाता है, परंतु साधुवंश तो विशाल शाखा, प्रशाखाओं से विस्तृत सर्व प्रकार से गुण वाला, वांस के फल आते तब वह नाश होता है परंतु यह वंश शिष्य प्रशिष्यादि से वृद्धि करनेवाला, वांस के पत्ते अंत में सड़ जाते हैं किंतु यह वंश सडाण रहित, श्रेष्ठ पात्र मुनियों वाला, सर्व दिशाओं में हमेशा छायावाला, कषाय तृप्त जीवों का आश्रय दाता, वांस का वृक्ष दूसरे से नाश होता है परंतु यह वंश दूसरों द्वारा पराभव नहीं होने वाला तथा कांटे रहित, वांस अमुक मर्यादा में बढता है परंतु यह वंश हमेशा बढ़ने के गणवाला तथा राजाओं के शिरसावंद्य-मस्तक में रहे हए फिर भी पृथ्वी में प्रतिष्ठा प्राप्त करते और वक्रता रहित अत्यंत सरल अपूर्व वंश प्रवाह बढ़ते उसमें अनुक्रम से परमपद को प्राप्त करने वाले महाप्रभु श्री वज्र स्वामी आचार्य भगवंत हुए हैं।
उनकी परंपरा में काल क्रम से निर्मल यश से उज्ज्वल और कामी लोगों के समान गोरोचन का महा समूह सविशेष सेवा करने योग्य है, तथा सिद्धि की इच्छा वाले मुमुक्षु लोगों के लिए सविशेष वंदनीय और अप्रतिम प्रशमभाव रूप लक्ष्मी के विस्तार के लिए अखूट भंडार भूत श्री वर्धमान सूरीश्वर हुए हैं उनके व्यवहार और निश्चय समान, अथवा द्रव्यस्तव और भावस्तव समान परस्पर प्रीतिवाले धर्म की परम उन्नति करने वाले दो शिष्य हुए उसमें प्रथम आचार्य श्री जिनेश्वर सूरीश्वरजी हुए कि सूर्य के उदय के समान उनके उदय से दुष्ट तेजोद्वेषी चकोर की मिथ्यात्व प्रभा-प्रतिष्ठा लुप्त हुई। जिन्हों ने महादेव के हास्य और हंस समान उज्वल गुणों के स्मरण करते भव्य जीवों को आज भी शरीर में रोमांच का अनुभव होता है। पुनः निपुण श्रेष्ठ व्याकरण आदि अनेक शास्त्रों के रचने वाले, जग प्रसिद्ध बुद्धिसागरसूरि नामक दूसरे शिष्य हुए उनके चरण कमल रूपी गोद के संसर्ग से परम प्रभाव प्राप्त करने वाले श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी उनके प्रथम शिष्य हुए और पूर्णिमा के चंद्र के समान भव्यात्य रूपी कुमुद के वन को शीतलता करनेवाले, जगत में महा कीर्ति को प्राप्त करने वाले श्री अभयदेव सूरीश्वरजी दूसरे शिष्य हुए। राजा जैसे शत्रु का नाश करता है वैसे उन्होंने कुबोध रूपी महा शत्रु को नाश करने वाले श्री श्रुतधर्म रूपी राजा के नौ अंगों की वृत्ति को करने के द्वारा उसकी दृढ़ता की है। वे श्री अभयदेव सूरिजी की प्रार्थना वश होकर श्री जिनचंद्र सूरीजी ने माली के समान मूलसूत्र रूपी बाग में से वचन रूपी उत्तम पुष्पों को वाणी रूप से एकत्रित करके अपनी बुद्धि रूपी गुण-धागे से गूंथकर विविध विषय रूपी सुगंध के समूह वाली यह आराधना नाम की माला रची हुई है। श्रमण रूपी भ्रमरों के हृदय को हरण करने वाली इस माला को विलासी मनुष्यों के समान भव्य प्राणी अपने सुख के लिए सर्व आदरपूर्वक उपयोग करें।
__ ग्रंथ रचना में सहायक और प्रेरक :- उत्तम गुणी मुनिवरों के चरणों में नमस्कार करने से जिसका ललाट पवित्र है उस सुप्रसिद्ध सेठ गोवर्धन के प्रसिद्ध पुत्र सा. जज्जनाग नामक पुत्र हुए हैं, इन्होंने अति प्रशस्त तीर्थ यात्रायें करने से प्रसिद्ध अप्रतिम गुणों द्वारा कुमुद सदृश निर्मल महान् कीर्ति को प्राप्त की है, तथा श्री जिन बिम्बों का प्रतिष्ठापन, आगम लिखवाना इत्यादि धर्म कार्यों से अन्य का आत्मोत्कर्ष करने वाले और इर्ष्या रखने
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