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ग्रंथकार की प्रशस्ति
श्री संवेगरंगशाला
वालों के चित्त को चमत्कार कराने वाले जिनागम से संस्कार प्राप्तकर बुद्धिमान बनें हैं। उस श्री सिद्धवीर नामक सेठ की सहायता से और अत्यंत भावनापूर्वक इस आराधना माला की रचना की है।
ग्रंथकार का आशीर्वाद :- इस रचना द्वारा हमने जो किंचित् भी पुण्य उपार्जन किया हो, उससे भव्य जीव श्री जिनाज्ञा के पालन रूप श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करें।
ग्रंथ रचना का स्थान और समयादि :- 'आराधना' ऐसा प्रकट स्पष्ट अर्थवाली यह रचना छत्रावली नगरी में सेठ जेज्जय के पुत्र सेठ पासनाग की वसति में विक्रम राजा के समय से ग्यारह सौ के ऊपर पच्चीस वर्ष अर्थात् १९२५ विक्रम संवत् में यह ग्रंथ पूर्ण किया, एवं विनय तथा नीति से श्रेष्ठ समस्त गुणों के भंडार श्री जिनदत्त गणी नामक शिष्य ने इसे प्रथम पुस्तक रूप में लिखी है ।। १००५३।। भावि भ्रमण को मिटाने के लिए इस ग्रंथ सर्व गाथा (श्लोक) मिलाकर कुल दस हजार तिरेप्पन होते हैं।
इस प्रकार श्री जिनचंद्र सूरीश्वर ने रचना की है, उनके शिष्य रत्न श्री प्रसन्नचंद्रसूरीजी की प्रार्थना से श्री गुणचंद्र गणी ने इस महा ग्रंथ को संस्कारित किया है और श्री जिनवल्लभ गणी ने संशोधन की हुई श्रीसंवेगरंगशाला नाम की आराधना पूर्ण हुई। वि.सं. १२०३ पाठांतर १२०७ वर्ष में जेठ शुद १४ गुरुवार के दिन दण्ड नायक श्री वोसरि ने प्राप्त किये ताम्र पत्र पर श्रीवट वादर नगर के अंदर संवेगरंगशाला पुस्तक लिखी गई है इति ऐसा अर्थ का संभव होता है। तत्त्व तो केवल ज्ञानी भगवंत जाने ।
इस ग्रंथ का उल्लेख श्री देवाचार्य रचित कथा रत्न कोष की प्रशस्ति में इस प्रकार से जानकारी मिलती है - आचार्यश्री जिनचंद्रसूरीश्वरजी वयरी वज्र शाखा में हुए हैं। वे आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी के शिष्य थे और ग्रंथ रचना वि. सं. ११३९ में की थी। कहा है कि चांद्र कुल में गुण समूह से वृद्धि प्राप्त करते श्री वर्धमान सूरीश्वर के प्रथम शिष्य श्री जिनेश्वर सूरीजी और दूसरे शिष्य बुद्धिसागर सूरीजी हुए हैं। आचार्य श्री बुद्धि सागर सूरीजी के शिष्य चंद्रसूर्य की जोड़ी समान श्री जिनचंद्र सूरीजी और नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव सूरीजी हुए, अपनी शीत और ऊष्ण किरणों से जगत में प्रसिद्ध थे । उन श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी ने यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना रचना की है और श्री प्रसन्नचंद्र सूरीश्वर के सेवक अनुसुमति वाचक के शिष्य लेश श्री देवभद्र सूरि ने कथा रत्न कोश रचना की है और यह संवेगरंगशाला नामक आराधना शास्त्र को भी संस्कारित करके उन्होंने भव्य जीवों के योग्य बनाया है।
इसके अतिरिक्त जेसलमेर तीर्थ के भंडार की ताड़पत्र ऊपर लिखा हुआ संवेगरंगशाला के अंतिम विभाग में लिखने की प्रशस्ति इस प्रकार है- जन्म दिन से पैर के भार से दबाये मस्तक वाला मेरु पर्वत के द्वारा भेंट स्वरूप मिली हुई सुवर्ण की कांति के समूह से जिनका शरीर शोभ रहा है वे श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं । सज्जन रूपी राजहंस की क्रीड़ा की परंपरा वाले और विलासी लोग रूपी पत्र तथा कमल वाले सरोवर समान श्री अणहिल्ल पट्टन (पाटन) नगर में रहनेवाला तथा जिसने भिल्लमाल नामक महागोत्र का समुद्धार या वृद्धि की है उस गुण संपदा से युक्त मनोहर आकृतिवाला, चंद्र समान सुंदर यश वाला, जगत में मान्य और धीर श्री जीववान (जीवन) नामक ठाकुर (राज या राजपुत्र) हुआ, उसने स्वभाव से ही ऐरावण के समान भद्रिक सदा वीतराग का सत्कार, भक्ति करने वाला आचार से दानेश्वरी वर्धमान ठाकुर नाम का पुत्र था । उसे नदीनाथ समुद्र को जिसका आगमन प्रिय है वह गंगा समान पति को जिसका आगमन प्रिय है उसे अत्यंत मनोहर आचार वाली यशोदेवी नामक उत्तम पत्नी थी। उन दोनों को चंद्र समान प्रिय और सदा विश्व में हर्ष वृद्धि का कारण तथा अभ्युदय के लिए गौरव को प्राप्त करनेवाला पंडितों में मुख्य, प्रशंसा पात्र पार्श्व ठाकुर नामक पुत्र हुआ। उस कुमार ने पल्ली में बनाया हुआ भक्ति के अव्यक्त शब्द से गूँजता सुवर्णमय कलश वाला श्री महावीर प्रभु का चौमुख मंदिर हिमवंत पर्वत की प्रकाश वाली औषधियों से युक्त ऊँचे शिखर के समान शोभता है। उस मंदिर के
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