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समाधि लाभ द्धार-विजहना नामक नौवाँ द्वार
श्री संवेगरंगशाला स्थिर, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त और क्षीर समुद्र के समान गंभीर इस तरह लोकोत्तर गुणों के समूह से शोभित पृथ्वी ऊपर विचरते अंत समय में संलेखना क्रिया को विशेष प्रकार से करेगा।
फिर आत्मा की संलेखना करता वह महाभाग चारों आहार का त्याग करके एक महीने का पादपोपगमन अनशन में रहेगा वहाँ शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से शीघ्र संपूर्ण कर्मवन को जलाकर जरा-मरण से रहित, इष्ट वियोग, अनिष्ट योग और दरिद्रता से मुक्त, एकान्तिक, आत्यंतिक व्याबाधारहित और श्रेष्ठ सुख से मधुर तथा पुनः संसार में आने का अभाव वाला, अचल, रजरहित, रोग रहित, क्षय रहित, शाश्वत, अशुभ-शुभ सर्व कर्मों को नाश करने से होने वाला भयमुक्त, अनंत शत्रु रहित असाधारण निर्वाणपद को एक ही समय में प्राप्त करेगा। और भक्ति वश प्रकट हुए रोमांच द्वारा व्याप्त देह वाले एकाग्र मन वाले देव उसका निर्वाण महोत्सव करेंगे।
इस प्रकार हे स्थविरों! महासेन महामुनि को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल वाली, उत्कृष्ट कल्याण परंपरा को सम्यक् प्रकार से सुनकर, सर्वथा प्रमाद रहित, माया, मद, काम और मान का नाश करनेवाले, संसार वास से विरामी मनवाले और दुष्ट विकल्पों से अथवा शंकाओं से मुक्त तुम जिनमत रूपी समुद्र में से प्रकट हुआ यह आराधना रूपी अमृत का पान करो कि जिससे हमेशा जरा, मरण रहित तुम परम शांति स्वरूप मुक्ति को प्राप्त करो। इस प्रकार निर्मल ज्ञान के प्रकाश से मोहरूपी अंधकार को चकचूर करने वाले श्री गौतम स्वामी ने यथास्थित वस्तु के रहस्य को कहा, तब मस्तक पर दो हस्तकमलों को स्थिर स्थापितकर हर्षपूर्वक विकसित ललाटवाले विनय पूर्वक नमस्कारकर स्थविर इस प्रकार से स्तुति करने लगे।
हे निष्कारण वत्सल! हे तीव्र मिथ्यात्व के अंधकार को दूर करने वाले दिवाकर-सूर्य! आपकी जय हो। हे स्व-पर उभय के भय को खत्म करने वाले! हे तीन लोक का पराभव करने वाले! काम का नाश करने वाले! हे तीन जगत में फैली हुई बर्फ समान उज्ज्वल विस्तृत कीर्ति के समूहवाले! हे सुरासुर सहित मनुष्यों ने सर्व आदर पूर्वक की हुई मनोहर स्तुति वाद वाले! हे मोक्ष नगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीव समूह के परम सार्थवाह! और हे अति गहरे समुद्र की भ्रांति कराने वाले! भरपूर करुणा रस के प्रवाह वाले भगवंत! आप विजयी रहें। हे स्वामी! विश्व में ऐसी कोई उपमा नहीं है कि जिसके साथ आपकी तुलना कर सकूँ? केवल आप से ही आपकी तुलना कर सकता हूँ परंतु दूसरा कोई नहीं है। कम गुण वालों की उपमा से उपमेय की सुंदरता किस तरह हो सकती है? 'तालाब से समुद्र' इस तरह की हुई तुलना शोभायमान नहीं होती है। हे प्रभु! सौधर्माधिपति इन्द्र आदि भी आपके गुणों की प्रशंसा करने के लिए समर्थ नहीं है तो फिर तुच्छ बुद्धि वाला अन्य व्यक्ति आपकी स्तुति कैसे कर सकता है? हम हे नाथ! यद्यपि आप की उपमा और स्तुति के अगोचर है, फिर भी सद्गुरु हो, चक्षु दाता और अत्यंत श्रेष्ठ उपकारी हो, इससे भक्ति समूह से चंचल हम आपकी ही स्तुति करते हैं, क्योंकि निश्चय रूप में आप से अन्य कोई भी स्तुति पात्र नहीं है। इस कारण से आप ही इस विश्व में जय प्राप्त करते हो कि जिससे संसार समुद्र में डुबते भव्य जीवों को यह आराधना रूपी नाव का परिचय करवाया। इस तरह श्रमणों में सिंह तुल्य भगवान श्री गौतम स्वामी की स्तुति कर स्थविर प्रारंभ किये धर्म कार्यों को करने में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त हुए। इस प्रकार यह संवेग रंग शाला नाम की आराधना-रचना समाप्त हुई है अब इसका कुछ अल्प रहा हुआ शेष भाग कहता हूँ ।।१००२५ ।
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