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परिकर्म द्वार-राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार
'श्री संवेगरंगशाला में भक्ति वाले प्रधान उत्तम पुरुषों को उनके योग्य कार्य में संस्थापित कर, लोगों को पीड़ा भय आदि न हो इस प्रकार राजा अपने देश में ही जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की अति श्रेष्ठ पूजा, वंदन, नमस्कार करता हुआ यात्रा करें। और भद्रिक परिणामी हाथियों के समूह से विशाल राजमार्ग को भर देते. हर्ष से हिनहिनाहट करते घोडों की कठोर खूर की आवाज से आकाश को भी गूंजाते परस्पर जोर से चीख हाँक करने से आवाज द्वारा घोर भयजनक पैदल सेना के समह को चारों तरफ फैलाते. अति उज्ज्वल छत्रों से सर्य की किरणों के प्रकाश के विस्तार को ढांकते हुए अपने देश में रहे जिनमंदिरों के आदरपूर्वक दर्शन करने वाले राजा को देखकर कौन मनुष्य धर्म प्रशंसा न करें? अथवा ऐसे उत्तम मनुष्यों से पूजित और सौम्य आनन्द दायक जिन धर्म को मोक्ष का एक हेतुभूत मानकर कौन एक चित्त से स्वीकार न करें? इस तरह धर्म के श्रेष्ठ कर्त्तव्यों का पालन करने वाला वह राजा किसी समय जिन कथित नयो द्वारा विषय वासना की निंदा करें, कई बार महामुनियों के चारित्र को एकाग्र मन से सुनें, तो किसी समय मन्त्री सामंतों के साथ प्रजा की चिंता भी करें। किसी समय धर्म के विरोध को देखकर उसे सर्वथा रोक दे, किसी समय अपने परिवार को उपयोग पूर्वक समझाये कि-अरे! सम्यग् रूप से देखो! विचार करो! संसार में कुछ भी सार नहीं है, क्योंकि जीवन बिजली समान चंचल है, सारी ऋद्धियाँ जल तरंग सदृश चपल हैं ।।२२०१।। परस्पर के राग भी बन्धनों के समान शान्ति देने वाला नहीं है। मृत्यु तो हमेशा तैयार खड़ी है, और वस्तु के भोगादि सामग्री के फल असार है। सुख का संभव अल्प है और उसके परिणाम भोगने का कर्म विपाक अत्यन्त दारुण है और प्रमाद का सेवन असंख्य दुःख का कर्ता है।
समग्र दोषों का मुख्य कारण जो मिथ्यात्व है उसके त्यागपूर्वक का मनुष्य जन्म दुर्लभ है, और धर्म करने की उत्तम सामग्री तो इससे भी अति दुर्लभ है। तीनों लोक रूप चक्र का अवमथन करने वाले, तीनों लोक पर विजय प्राप्त करने वाले और काम रूपी मल्ल को चकनाचूर करने में समर्थ, भवसमुद्र से तारनेवाले श्री वीतरागदेव मिलने भी दुर्लभ हैं। रागरहित गुरुदेव भी दुर्लभ हैं, सर्वज्ञ का शासन भी दुर्लभ है और ऐसे सभी दुर्लभ पदार्थ मिलने पर भी उसमें जो धर्म का उद्यम नहीं करता वह तो महा आश्चर्य है। इस तरह समीप रहने वाले वर्ग को समझाये, किसी समय वह गीतार्थ संविज्ञ आचार्यादि की सेवा भी करें। और वे आचार्य भी उसे युक्ति संगत गंभीर वाणी से बुलाये जैसे कि-हे राजन्! प्रकृति से ही बुद्धिमान तुम्हारे समान पुरुष जिनवचन द्वारा अशुभ कर्म बंधन के कारणों को जानकर अन्य अपराधी के प्रति भी लेशमात्र प्रद्वेष न करें, और मोक्ष की ही एक अभिलाषा वाला वह नमते हुए राजा और देवों के मुकुट में लगे हुए रत्नों की कान्ति से प्रकाशमान चक्रवर्तित्व अथवा देवों का प्रभुत्व इन्द्रपद की इच्छा न करें। लेकिन जेल में रहे कैदी के समान शारीरिक-मानसिक अनेक तीव्र दुःख समूह की अतीव व्याकुलता वाला और प्रकृति से ही भयंकर संसार से शीघ्र छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा करें। दुःख से पीड़ित को देखकर उनका दुःख अपने समग्र अंग में व्याप्त हो जाये ऐसे करुणा प्रधान चित्तवाला बनकर दीन-अनाथों की अनुकम्पा करें, और सम्यक्त्व की शुद्धि को चाहने वाला उन जीव अजीवादि समस्त पदार्थों के विस्तार से सर्वभावों को जिनाज्ञानुसार सम्यक् सत्य मानें। काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद ये छह अहंकारी अंतरंग शत्रु हृदय में स्थान बनाकर न रह जाय ऐसी सदा सावधानी रखें। संक्लिष्ट चित्तवाले की सर्व क्रियाएँ निष्फल जाती हैं, ऐसा जानकर संक्लेश को निष्फल करें अथवा क्रियाओं को सफल करने के लिए सदा मन की शुद्धि को धारण करें। जहर से युक्त धार वाली भयंकर तलवार से अंग छेदन करने के समान जिस वाणी से श्रोता दुःखी हो ऐसी वाणी का किसी प्रकार भी उपयोग न करें। उत्तम कुल में जन्मे हुए और महासत्त्वशाली अल्पमात्र सुख में मूढ़ बनकर क्षणभंगुर शरीर से क्लेशकारक प्रवृत्ति का आचरण न करें। तथा
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