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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार (पुंडरिकगिरि) पर अनशन कर मोक्ष गयें। फिर उस सेलक सूरि का शरीर विविध तप से और विरस आहार पानी से केवल हाडपिंजर जैसा अतिदुर्बल बन गया, और रोग भी हो गये थे फिर भी सत्त्व वाले होने के कारण विहार करते वे सेलकपुर पधारें और मृगवन उद्यान में स्थिरता की। वहाँ प्रीति के बंधन से मंडुक राजा वंदनार्थ आया और धर्मकथा सुनकर प्रतिबोध प्राप्तकर वह श्रावक बना। उसके बाद सूरिजी को रोगी और अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले देखकर उसने कहा-हे भगवंत! मैं निमित्त बिना तैयार हुआ निर्दोष आहार, पानी, औषधादि से आपकी चिकित्सा करवाऊँगा, उसे सुनकर आचार्यश्री ने स्वीकार किया, और फिर राजा ने उनकी औषधादि क्रिया की। इससे सूरिजी स्वस्थ शरीर वाले हो गयें, परन्तु प्रबल मादक रस की गृद्धि आदि में रागी हो गयें और इससे साधु के गुणों से विमुख बनकर वे वहीं स्थिर रहने लगे। इससे पंथक सिवाय शेष साधु उनको छोड़कर चले गयें। फिर चौमासी की रात्री में गाढ़ सुख की नींद में सोये हुए उनको पंथक ने चौमासी अतिचार को खमाने के लिए मस्तक से पाद स्पर्श किया, इससे वे जाग गये और क्रोधयुक्त होकर कहा-कौन दुराचारी मस्तक से मेरे पैरों में घर्षण करता है? उसने कहा-हे भगवंत! मैं पंथक नामका साधु चौमासिक क्षमायाचना करता हूँ, एक बार मुझे क्षमा करो, फिर ऐसा नहीं करूँगा, इससे संवेग को प्राप्त होकर सूरिजी ने इस प्रकार से कहा-हे पंथक! रसगारव आदि के जहर से उपयोग भूले हुए मुझे तूंने श्रेष्ठ जागृत किया है, मुझे अब से यहाँ पर स्थिर वास रहने के सुख से क्या प्रयोजन है? मैं तो विहार करूँगा उसके बाद वे सूरिजी अनियत विहार से विचरने लगे और विहार करते उनके पूर्व के शिष्य भी पुनः आकर मिल गये। फिर कालान्तर में कर्म रूपी रज का नाशकर प्रबल सुभट रूप मोह को चकनाचूरकर शत्रुजयगिरि पर उन्होंने अनुत्तर मोक्ष सुख प्राप्त किया ।।२१७९।। इस प्रकार स्थिरवास के दोषों को और उद्यमशील विहार के गुणों को जानकर कौन कल्याण कुशल अविहार का पक्ष करके स्थिरवास रहे? और स्थिरवास का पक्ष करने से गहस्थ प्रति राग और अपने संयम में लघुता आती है, लोगों के उपकार में अभाव आ जाता है, अलग-अलग देशों का आचारादि विज्ञान के जानने का अभाव होता है और जिनाज्ञा की विराधना इत्यादि दोष होते हैं। कालादि दोष से यह नियत विहार से विचरण रूप न हो तो भी भाव से नियम से संथारा अन्य स्थान बदलना इत्यादि भी विधि करनी चाहिए। इस तरह पापमैल को धोने में जल समान और परिक्रम विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली संवेगरंगशाला रूपी आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम द्वार में यह अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार पूर्ण हुआ।।२१८४।। राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार : ऊपर गृहस्थ और साधु सम्बन्धी अनियत विहार की चर्चा की है, अब केवल राजा सम्बन्धी कहता हूँ। क्योंकि-चिरकाल के अत्यन्त पुण्य के भंडार और भावि कल्याण वाला कोई जीव राजा होकर भी अत्यन्त प्रशम रस वाला, परलोक से डरे चित्तवाला विषय सुखों को सम्यक्तया विष समान माननेवाला, मोक्ष सुख प्राप्ति में एक लक्ष्य वाला, जब आराधना करने की इच्छा करता है तब परदेश में जाते शत्रु राजा की ओर से विघ्नों व होने से अपने ही देश में जिन प्रतिमा को वंदन करे उतने ही देश में उनका अनियत विहार होता है। वह हाथियों के समूह, उदार श्रेष्ठ सुभटों के समूह और घोड़े और रथ के समूह से घिरा हुआ भी उस परदेश में तीर्थों को वंदनार्थ प्रस्थान करें तो शत्रु राजा अपने राज्य के हरण करने की शंका से क्रोधित हो अथवा उसका देश स्वामी रहित है ऐसा मानकर शत्रुराजा द्वारा उसके राज्य के हरण करने में वह निमित्त कारण हो जाता है। इस कारण से स्वामिभक्त, गुणवान, शास्त्रार्थ के ज्ञान में कुशल, अपने समान राज्य का वफादार मन्त्री को राज्य भार सौंपकर. जीतने योग्य वर्ग को जीतकर. देश को स्वस्थ बनाकर महाभंडार को साथ लेकर, अपने-अपने कार्यों 96 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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