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परिवर्म द्वार-सेलक सूरि की कथा
'श्री संवेगरंगशाला को तथा पाप भीरु आदि को देखकर स्वयं भी धर्म में प्रीतिवाला और स्थिर होता है, प्रायः प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी बनता है। इस तरह विहार से परस्पर धर्म में दूसरा स्थिरीकरण गुण प्राप्त करता है। अनियत विहार से चलने का, भूख-प्यास का, ठंडी और गरमी का इत्यादि परीषहों को सहन करने का अनुभव, वसति रहने का स्थान, कैसा मिलता है उसको सम्यक् सहन करने का, चारित्र अभ्यास रूप तीसरी भावना होती है। विहार करने वाले को अतिशय श्रुत ज्ञानियों के दर्शनों का लाभ होता है, उससे सूत्र-अर्थ का स्थिरीकरण तथा अतिशय गूढ अर्थों का तथा उसका रहस्य जानने का चौथा सूत्र विशेष अर्थ की प्राप्ति होती है। विहार करते नये-नये समुदाय में रहने से अनेक प्रकार के आचार्यों के गण में सम्यक् प्रवेश करते निष्क्रमण आदि देखने से उस विधि में और अन्य सामाचारी में भी पाँचवां कुशलता गुण उत्पन्न होता है। और विहार करने से साधु को जहाँ निर्दोष आहारादि आजीविका सुलभ हो ऐसे संयम के योग्य क्षेत्र का परिचय छट्ठा परीक्षा गुण प्रकट होता है।
इसलिए छह गुण प्राप्ति की इच्छा वाले मुनि को जब तक पैरों में शक्ति हो तब तक अनियत विहार की विधि का पालन करना चाहिए अर्थात् अप्रतिबद्ध विहार करना चाहिए। यदि बलवान होने पर भी रस आदि की आसक्ति से विहार में प्रमाद करता है तो उसे केवल साधु ही छोड़ देते हैं ऐसा नहीं, परन्तु गुण भी उसे छोड़ देते हैं। और वही शुभभाव फिर से उत्पन्न होने पर विहार में उद्यमशील होता है, तो उसी समय साधु के गुणों से युक्त बन जाता है। प्रमाद रूप स्थिरवास और अप्रमाद रूप नियत विहार इन दोनों विषय में सेलक सूरि का वृत्तान्त दृष्टान्त रूप में है ।।२१५०।। वह इस प्रकार :
सेलक सूरि की कथा सेलकपुर नगर में पहले सेलक नामक राजा था। उसकी पद्मावती रानी और उनका मंडुक नाम से पुत्र था। थावच्चापुत्र सूरीश्वर की चरण सेवा करते राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया था और वह न्यायपूर्वक निरवद्य राज्य का सुख भोगता था। एक समय थावच्चापुत्र सूरि के शिष्य पट्टधर शुक सूरिजी विहार करते उस नगर में पधारें, और मुनियों के उचित मृगवन नामक उद्यान में स्थिरता की, उनका आगमन जानकर राजा वंदनार्थे वहाँ आया। तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में नमस्कार कर हर्षपूर्वक अंगवाला राजा धर्म सुनने बैठा। मुनिपति आचार्यश्री ने भी उसे संसार प्रति परम निर्वेद कारक, विषयों के प्रति वैराग्य प्रकट करने में परायण, संमोह को नाश करने वाली, संसार में प्राप्त हुई सभी वस्तुओं के दोषों को बतलाने में समर्थ, मधुर वचन से कान को सुख देने वाली विस्तारपूर्वक धर्मकथा लम्बे समय तक कही। इससे राजा को प्रतिबोध हुआ और अत्यन्त हर्ष से उछलते रोमांचित वाले उसने गुरु चरणों में नमस्कार कर इस प्रकार कहा-हे भगवंत! मेरे पुत्र को राज्य ऊपर बैठाकर, राज्य को छोड़कर शीघ्र आपके पास में दीक्षा स्वीकार करूँगा। गुरुदेव ने कहा-हे राजन्! संसार स्वरूप को जानकर तुम्हारे जैसे को यह करना योग्य है, इसलिए अब इस संसार के विषय में थोड़ा भी राग मत करना।
इस तरह गरु महाराज से प्रतिबोधित हआ वह राजा अपने घर गया और मंडक नामक श्रेष्ठ कंवर को अपने राज्य पर स्थापन किया। उसके बाद पंथक आदि पांच सौ मंत्रियों के साथ राजा सुंदर श्रृंगार कर एक हजार पुरुषों से उठाई हुई पालकी में बैठा, और गुरु महाराज के पास आकर सर्व संग के राग को छोड़कर राजा ने दीक्षा स्वीकार की तथा प्रतिदिन संवेगपूर्वक उस धर्म क्रिया में उद्यम करने लगा। फिर उस मुनि ने अनुक्रम से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, और दुष्कर तप करने में परायण बनकर वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार से पृथ्वी ऊपर विचरने लगा। फिर शुक सूरिजी ने पंथक आदि पांच सौ मुनियों के गुरु सेलक मुनि को सूरिपद पर स्थापन कर स्वयं बहुत काल तक विहार कर सुरासुरों से पूजित वे एक हजार साधुओं सहित पुंडरिक नामक महा पर्वत
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