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________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला शब्द बोलते हैं, फिर भी सुनने वाले मनुष्य उससे संतोष मानते हैं और आशीर्वाद देने पर भी लोग मेरा गला हाथ से पकड़ कर निकाल देते हैं, इससे कठोर पाप का भंडार, तुच्छ प्रवृत्ति वाला और रोग से पराभूत मुझे संयम लेना ही अच्छा है, क्योंकि उसमें भी कार्य यही करने का है। जैसे कि-साधु जीवन में मलिन शरीर वाला रहना, भिक्षा वृत्ति करना, भूमिशयन, पराये मकान में रहना, हमेशा सर्दी, धूप, सहन करना और अपरिग्रही जीवन जीना, क्षमा धारण करनी, परपीड़ा का त्याग, शरीर भी दुर्बल ही रहता है। यह सब जन्म से लेकर मेरे लिए स्वभाव सिद्ध है, और ऐसा जीवन तो साधु को परम शोभाकारक होता है, गृहस्थ को नहीं होता है। यह सत्य है कि योग्य स्थान पर प्राप्त हुए दोष भी गुण रूप बनते हैं। ऐसा विचार करके परम वैराग्य को धारण करते तूंने तापस दीक्षा ली और दुष्कर तपस्या करने लगा। फिर अन्तकाल में मरकर तूं जम्बूद्वीप के अन्दर भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के ऊपर रथनूपुर चक्रवाल नामक नगर में चंडगति नाम से उत्तम विद्याधर की विद्युन्मती नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। तेरा उचित समय में जन्म हुआ और तेरा वज्रवेग नाम रखा, फिर अत्यन्त सुन्दर रूप युक्त शरीर वाला तूं कुमार बना, तब अल्पकाल में सारी कलाओं के समूह में कुशलता प्राप्त की और आकाशगामिनी आदि अनेक विद्याओं का भी तूंने अभ्यास किया। उसके पश्चात् मनुष्यों के नेत्रों को आनन्ददायी, मनस्विनी स्त्रियों में मन रूपी कमल को विकसित करने में सूर्य समान, सन्मान का पात्र रूप, तरुण अवस्था प्राप्त होने पर तूं कामदेव के समान शोभने लगा। फिर हाथी के जैसे समान वयवाले मित्रों से घिरा हुआ तूं नगर में तीन-चार रास्ते वाले चौराहे में निःशंकता से घूमने लगा और प्रचुर वनों में और सरोवर में भी रमण करने लगा। एक दिन तूंने झरोखे में बैठे हेमप्रभ विद्याधर की सुरसुन्दरी नामक पुत्री को देखा। हे भाग्यशाली! उसका यौवन, लावण्य, रूप, वैभव और सौभाग्य ने तेरे हृदय को उसके प्रति आकर्षित कर दिया। और तेरे दर्शन से विकसित नेत्र कमल वाली उसके चित्त में कुसुम युद्ध कामदेव पुष्प रूप शस्त्र वाला होने पर भी वज्र के प्रहार के समान पीड़ा देने लगा, केवल पास में रही सखियों की लज्जा से विकार को मन में दबाकर उसने सूंघने के बहाने तुझे नील कमल बतलाया। इस तरह उसने तुझे अंधकारी रात्री का संकेत किया, इससे हर्ष के आवेग से पूर्ण अंग वाला तूं अपने घर गया। उसके बाद मित्रों को अपने-अपने घर भेजकर तूं करने योग्य दिनकृत्यों को करके मध्यरात्री में केवल एक तलवार की सहायता वाला एकाकी अपने घर से निकला। कोई भी नहीं देखे इस तरह तूं चोर के समान धीरे से खिड़की द्वारा प्रवेश करके पलंग पर उसके पास बैठा 'दिन में देखा था वह प्रवर युवान है' ऐसा उसने जानकर हर्षित हुई उसने पति के समान तेरी सेवा की। उसके बाद परस्पर विलासी बातों की गोष्ठी में एक क्षण पूर्ण करके तूंने उससे कहा कि-हे सुतनु! तेरा यह स्वरूप विसदृश परस्पर विरुद्ध क्यों दिखता है? शरीर की शोभा चन्द्र की ज्योत्सना की भी हंसी करे ऐसा सुन्दर क्यों है? और तेरा यह वेणी-बन्धन से बांधा हुआ केश कलाप सर्प समान काला भयंकर क्यों दिख रहा है? और तूं लक्षणों से विद्यमान पति वाली दिखती है और तेरा शरीर पति संगम का सुख नहीं मिला हो ऐसा शुष्क क्यों दिखता है? इसलिए हे सुतनु! इसका परमार्थ कहो! क्या तूंने पति को छोड़ दिया है? अथवा अन्य में आसक्त होने से उसने ही तुझे छोड़ दिया है?।।२८८।। तब कछ नेत्र कमल बंधकर उसने कहा कि __हे सुभग! इस विसदृशता (परस्पर विरुद्धता) में रहस्य क्या है वह तूं सुन! यौवनारूढ़ हुई मेरा यहीं पर रहने वाले कनक प्रभ नामक विद्याधर पुत्र के साथ गाढ़ प्रेमपूर्वक विवाह हुआ। विवाह के बाद तुरन्त मेरे भाग्य के दोष से अथवा उसके वेदनीय कर्म के वश वह मेरा स्वामी अग्नि तुल्य दाहज्वर में पकड़ा गया। इससे अग्नि 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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