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श्री संवेगरंगशाला
महासेन राजा की कथा
से तपी हुई लोहे की कढ़ाई में जैसे डाला हो वैसे वह लगातार उछलने लगा, कांपने लगा, दीर्घ निसासा छोड़ने लगा और विरस चिल्लाने लगा। इससे उसके पिता सर्व कार्य छोड़कर रोग की शान्ति के लिए विविध औषध के अनेक प्रयोग करने लगे। वह औषध नहीं, वह मणि नहीं, वह विद्या नहीं और वह वैद्य नहीं कि उसके पिता ने उसकी शान्ति के लिए उसका उपयोग नहीं किया हो। खाना, पीना, स्नान विलेपन आदि को छोड़कर शोक के भार से भारी आवाज वाले पास बैठे स्वजन रोने लगे। उसकी माता भी शोक के वश होकर अखंड झरते नेत्र के आँसू वाली, जिससे मानों दोनों आँखों से गंगा सिन्धु नदी का प्रवाह बहता हो इस तरह रोने लगी। निष्कपट ऐसे प्रेम को धन्य है। भयानक वन के दावानल से जले हुए वृक्ष का ठूंठ के समान उनके स्नेहीजन भी निस्तेज बने खेद करने लगें। इस तरह उसके दुःख से नगर के लोग भी दुःखी हुए और विविध प्रकार के सैंकड़ों देव, देवियों की मान्यता मानने लगें, फिर भी प्रतिक्षण दाहज्वर अधिकतर बढ़ता रहा और जीने की आशा ह बनकर वैद्य समूह भी वापिस चला गया। तब उसने ऐसा चिन्तन किया कि - अहो ! थोड़े समय भी आपत्ति में पड़े जीव को इस संसार के अन्दर किसी तरह कोई भी सहायता नहीं कर सकता है ।। ३०० ।। माता-पिता सहित अतिवत्सल और स्नेही बन्धु वर्ग भी आपत्ति रूप कुएँ में गिरे हुए अपने सम्बन्धी को देखने पर भी किनारे के पास खड़े-खड़े शोक ही करते हैं, इस जीव का किसी से थोड़ा भी रक्षण नहीं हो सकता है। परन्तु वे लोग तो प्रसन्नता से रहते हैं, यह आश्चर्यभूत मोह की महान महिमा है। इसलिए यदि किसी तरह भी मेरा यह दाहज्वर थोड़ा भी उपशम हो जाय तो स्वजन और धन का त्याग करके मैं जिन दीक्षा स्वीकार करूँगा। उसके पश्चात् भाग्योदय से दिव्य औषधादि बिना भी जब, शुभ परिणामस्वरूप औषध से वह निरोगी हुआ तब स्वजनों को अनेक प्रकार से समझाकर श्री गुणसागरसूरिजी के पास दीक्षित हुए, छट्ट, अट्ठम आदि दुष्कर तपश्चर्या में तत्पर होकर वे विहार कर गये। इस तरह हे महाशय ! तुमने मेरी विसदृशता का जो कारण पूछा था, वह सारा जैसा बना था वैसा तुम्हें कह दिया । । ३०६ ।।
इस तरह बात सुनकर हे महासेन राजा ! तब तूंने विचार किया कि -अनार्य कार्य में आसक्त मेरे पुरुष जीवन को धिक्कार हो, बुद्धि को भी धिक्कार हो, मेरे गुणरूपी पर्वत में वज्र गिरे, और मेरा शास्त्रार्थ में पारगामीत्व भी पाताल में चला जाये। उत्तम कुल में जन्म मिलने से उत्पन्न हुआ अभिमान गुफा में जाये और बिचारी नीति भी दूसरे उत्तम पुरुष का आश्रय करे। क्योंकि कुत्ते के समान निर्लज्ज मैं श्रेष्ठ पुरुष के मस्तक मणि के समान उस पुरुष जिसका मन किया है, उस स्त्री को भोगना चाहता हूँ। वह धन्य ! कृतपुण्य है ! उसका ही मनुष्य जीवन सफल है, और उसने ही शरद के चन्द्र समान उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त की है। वह एक कनक प्रभ ही जिन कुल रूप आकाश का प्रकाशक चन्द्र है कि जिसने महामोहरूपी घोर शत्रु को लीलामात्र से चकनाचूर कर दिया हैं । हे पापी हृदय ! इस प्रकार के पुरुषों के सच्चरित्र को सुनकर भी उत्तम मुनियों से निषेधित परस्त्री के भोग में तुझे क्या आसक्ति है? हे मन ! श्रेष्ठ लावण्य से पूर्ण सर्व अंगवाली, प्रकृति के सौभाग्य की भण्डार, सर्व अंगों से मनोहर चेष्टावाली, प्रकृति से ही शब्दादि पांचों इन्द्रियों के सुन्दर विषयों की पराकाष्ठा को प्राप्त करने वाली, मनोहर सर्व अंगों पर श्रृंगार से प्रकट हुआ गौरव धारण करने वाली, कामदेव के निधान समान होने पर भी पवन से हिलते पीपल के पत्ते समान चंचल चित्त वाली इन परस्त्रियों में और अपनी पत्नी में भी तूं राग मत कर ।
जासि तुच्छमिह सुहं जाणसि दुक्खं पि मेरुगिरिगरुयं । जाणसि य चलं जीयं जाणसि तुच्छाउ लच्छीओ ।। ३१७ ।।
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