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महासेन राजा की कथा
श्री संवेगरंगशाला
जाणसि अथिरा नेहा जाणसि खणभंगुरं समत्थमिमं । तह वि हु गिहवासं कीस? जीव! नो चयसि एत्ताहे ।।३१८।।
तूं यहाँ का सुख अच्छा मानता है, परन्तु परिणाम से मेरु पर्वत के समान महान् दुःखदायी है वह भी जानता है? यह स्नेह अस्थिर है वह जानता है? और लक्ष्मी तुच्छ है, वह भी जानता है?
जीवन चंचल है वह जानता है और यह समस्त संयोग क्षणभंगुर है वह भी जानता है तो फिर हे जीवात्मा! अब भी तूं गृहवास का त्याग क्यों नहीं करता?।।३१७-३१८।।
इस तरह बहुत अधिक वैराग्य मार्ग में मन मुड़ने से तूंने दोनों हाथ जोड़कर उस स्त्री से कहा कि-हे सुतनु! तुम मेरी माता हो, और तेरा पति वह मेरा पिता है कि जिसने चारित्र रूपी रस्सी से मुझे पाप रूपी अकार्य के कुएँ में से बाहर निकाला है आज से सांसारिक कार्यों में मुझे वैराग्य हुआ है, हे सुरसुंदरी! तूं भी अपने पति के मार्ग के अनुसार दीक्षा स्वीकार कर। क्योंकि-महाप्रचंड वायु से वृक्ष के पत्ते समान आयुष्य चंचल है, लक्ष्मी अस्थिर है, यौवन बिजली समान चपल है, विषय विष समान दुःख जनक है। प्रियजन का संयोग वियोग से युक्त है, शरीर रोग से नाशवान् है और अति भयंकर जरा-वृद्धावस्था वैरिणी के समान प्रतिक्षण आक्रमण कर रही है। इस तरह उसे हित शिक्षा देकर उसके घर से निकलकर जिस मार्ग से आया उसी मार्ग से निकलकर तूं शीघ्र तेरे घर पहुँच गया। फिर वहाँ रहते हुए तूं संसार की असारता को देखता हुआ विचार करता था, उस समय काल निवेदक ने यह एक गाथा (श्लोक) सुनायी
जह किंपि कारणं पाविऊण जायइ खणं विरागमई । तह जइ अवट्ठिया सा, हवेज्ज ता किं न पज्जत्तं ।।३२६ ।।
अर्थात्- 'यदि किसी भी निमित्त को प्राप्तकर एक क्षण भी वैराग्य बुद्धि प्रकट हो जाय और वह स्थिर रहें तो क्या प्राप्त नहीं होता? अर्थात् एक क्षण भी वैराग्य की प्राप्ति बहुत लाभदायक है।'।।३२६ ।।
यह गाथा सुनकर सविशेष उछलते शुभभाव वाले तूंने प्रभात का समय होते ही घर में प्रेम नहीं होने से कुछ मनुष्यों के साथ वन उद्यान की शोभा देखने के लिए निकला। वहाँ उद्यान में एक स्थान पर चारण श्रमण मुनि को देखा।
उस मुनि में प्रशस्त गुण रत्नों रूप शणगार था, उन्होंने मोहमल्ल के दृढ़ दर्प को नष्ट कर दिया था, देह की कान्ति से सब दिशाओं को विभूषित की थी, पापी लोगों की संगति से वे पराङ्मुख थे, योग मार्ग में उन्होंने मन स्थिर किया था। वे कर्म शत्रु को जीतने में उत्कृष्ट साहसिक थें। पृथ्वी पर उतरे हुए पूनम के चंद्र के समान सौम्यता से वे मनुष्य के चित्त को रंजन करते थे, अति विशिष्ट शुभलेश्या वाले, भव्य लोक को मोक्षमार्ग प्रकाश करने वाले, क्रोध, मान, भय, लोभ से रहित, वादियों के समूह से विजयी होने वाले, एक पैर के ऊपर शरीर का भार स्थापन कर, एक पैर से खड़े होकर सूर्य सन्मुख दृष्टि करने वाले, मेरुपर्वत के शिखर समान निश्चल, और प्राणियों के प्रति वात्सल्य वाले वे काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहे हुए थे। इस प्रकार के गुण वाले उन मुनि को देखकर हर्षित नेत्र वाला तूं उनके चरणों में गिरा और कहने लगा कि-हे भगवंत! अब आप मोक्षमार्ग के उपदेश द्वारा मुझ पर कृपा करो, आपके दो चरणरूप चिंतामणी का दर्शन सफल हो। ऐसा कहने से उन्होंने महाकरुणा से काउस्सग्ग ध्यान पूर्णकर योग्य जानकर कहा-हे भव्य! तुम सनो:
इस लाखों दुःखों से भरे हुए अनादि अनन्त संसार में जीव महा मुसीबत से भाग्य-योग द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है। उसमें भी आर्य देश, आर्य देश में भी उत्तम कुल आदि श्रेष्ठ सामग्री मिलनी कठिन है, और
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