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________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा उसमें भी सौभाग्य ऊपर मंजरी समान जिन धर्म की प्राप्ति उत्तरोत्तर महा मुश्किल से होती है। क्योंकि मनुष्य अथवा देव की लक्ष्मी मिल जाय, भाग्ययोग से मनुष्य जन्म मिल जाये परन्तु अचिन्त्य चिन्तामणि के समान अति दुर्लभ जिन धर्म नहीं मिलता। इस तरह रत्न निधान की प्राप्ति समान धर्म को अतीव कठिनता से प्राप्त करके भी अनेक मानव अति तुच्छ विषयों की आसक्ति से महामूढ़ बनकर इस मानव भव को निष्फल बना देते हैं। इसके कारण वे बिचारे हमेशा जन्म-जरा-मरण रूपी पानी से परिपूर्ण और बहुत रोगरूपी मगरमच्छों से भयंकर संसार समुद्र का अनंत बार सेवन करते हैं। अतः ऐसा कौन बुद्धिमान होगा कि जो बहुत चिरकाल तक दुःखों को सहनकर महा मुश्किल से प्राप्त हुए करोड़ सुवर्ण मोहर को एक कोड़ी के लिए गवाँ दे ? धम्मत्थकाममोक्खा चउरो किर होन्ति एत्थ पुरिसत्था । ताण पुण सेसपुरिसत्थउभावो वरो धम्मो || ३४२ ।। इस संसार में जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ साधन करने योग्य हैं, उसमें भी अन्तिम तीन पुरुषार्थ की सिद्धि में हेतु रूप एक धर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है ।। ३४२ ।। फिर भी अधिक मात्रा में मदिरा के रस का पान करने वाले पागल मनुष्य के समान मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह में उलझन के कारण जीव उस धर्म को यथार्थ स्वरूप में नहीं जानता है। इसलिए है महायशस्वी! मिथ्यात्व के सर्व कार्यों का त्यागकर तूं केवल एक श्री जिनेश्वर को ही देव रूप में और मुनिवर्य को गुरु रूप में स्वीकारकर, प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के पापों को छोड़ दे ! इन पापों को छोड़ने से जीव भव भय से मुक्त होता है। इससे श्रेष्ठतम अन्य धर्म तीन जगत में एक भी नहीं है और इस धर्म से रहित जीव किसी तरह मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः सार रहित और अवश्य विनाशी शरीर का केवल आत्म गुण रूपी धर्म उपार्जन करने के सिवाय अन्य कोई फल नहीं है। और महावायु से पद्मिनी पत्ते के अन्तिम भाग में लगे हुए जल बिन्दु के समान अस्थिर इस जीवन का भी धर्मोपार्जन बिना दूसरा कोई फल नहीं है। उसमें भी सर्वविरति से विमुख जीव इस धर्म के पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए शक्तिमान नहीं होता है और इसकी प्राप्ति बिना जीव मोक्ष भी प्राप्ति नहीं कर सकता है, और उस मोक्ष के अभाव में सर्व क्लेश रहित एकान्तिक अत्यधिक अनन्त सुख अन्यत्र नहीं मिल सकता है। इस तरह के सुख वाले मोक्ष की प्राप्ति के लिए यदि तेरी इच्छा हो तो जिन दीक्षा रूपी नौका को ग्रहणकर के संसार समुद्र से पार हो जाओ। इस तरह चारण मुनि के कहने से हर्ष के आवेश में उछलते रोमांचित वाले और भक्ति से विनम्र बने तूंने उस मुनिवर्य के पास दीक्षा ली। उसके पश्चात् सकल शास्त्र को गुरुमुख से सुनकर अभ्यास किया, बुद्धि से सर्व परमार्थ तत्त्व को प्राप्त किया, छह जीव निकाय की रक्षा में तत्पर बना, गुरुकुलवास में रहते हुए विविध तपस्या करते तूं गुरु महाराज, ग्लान, बाल आदि मुनियों की वैयावच्च करते अपने पूर्व पापमय चरित्र की निन्दा करते नये-नये गुणों की प्राप्ति के लिए परिश्रम करता था और विशेषतया प्रशमरूपी अमृत से कषायरूपी अग्नि को शान्त करते इन्द्रियों के समूह को वश करने वाला तूं चिरकाल तक संयम की साधनाकर और अन्त में अनशन स्वीकारकर शुभ ध्यान से आयुष्य पूर्णकर सौधर्म कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ । और वह सुरसुंदरी भी उसी दिन ही दीक्षा लेकर दीक्षा का पालन करके पूर्व स्नेह के कारण वहाँ तेरी देवी रूप में उत्पन्न हुई। और वहाँ देवलोक में मेरे साथ तेरा कोई अपूर्व राग हुआ, इससे एक क्षण भी वियोग के दुःख को सहन नहीं करते अपना बहुत काल पूर्ण हुआ, फिर च्यवनकाल में तूं मुझे केवलज्ञानी के पास ले गया और वहाँ केवली भगवंत को अपना पूर्वभव तथा भावी जन्म 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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