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________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला के विषय में पूछा। तब उन्होंने भी अतितीव्र असंख्य दुःखों से भरा हुआ हाथी आदि के पूर्व जन्मों का वर्णन किया और भावी राजा का वर्तमान जन्म भी कहा। उस समय दोनों हाथ जोड़कर तूंने स्नेहपूर्वक कहा, 'हे सुभग! यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है इसे तुम निष्फल मत करना' ऐसा कहकर मुझसे कहा कि-जब मैं महा विषय के राग से विमूढ़ राजा बनूँ, तब तूं इस हाथी आदि भवों का वर्णन सुनाकर मुझे प्रतिबोध करना कि जिससे मैं पुनः पाप स्थान में आसक्त न बनूँ और जिन धर्म का सारभूत चारित्र से रहित होकर दुःखों का कारण रूप दुर्गतियों में न गिर जाऊँ। तेरी प्रार्थना मैंने स्वीकार की तूं च्यवनकर यहाँ राजा हुआ, और वह देवी कनकवती नामक तेरी रानी हुई। प्रायः कर सुखी जीव धर्म की बात सुनते हैं फिर भी धर्म की इच्छा नहीं करते हैं। इस कारण से प्रथम तुझे अति दुःख से पीड़ित बनाकर मैंने यह वृत्तान्त कहा है। इससे मैं तेरा वह मित्र हूँ, तूं वह देव है, और जो कहे हैं वे तेरे भव हैं, अतः महाभाग! अब जो अतिहितकर हो उसे स्वीकार करो ।।३६६।। देव ने जब ऐसा कहा तब महासेन राजा अपने सारे पूर्व जन्मों का स्मरण करके मूर्छा से आँखें बंद कर और क्षणवार सोने के समान चेष्टा रहित हो गया। उसके बाद शीतल पवन से चेतना आने से राजा महासेन ने दोनों हाथ जोड़कर, आदरपूर्वक नमस्कार करके कहा-आप वचन के पालन हेतु यहाँ पधारे हैं, इससे केवल स्वर्ग को ही नहीं परन्तु पृथ्वी को भी शोभित किया है। यद्यपि तेरी प्रेम-भरी वात्सल्यता के बदले में तीन जगत की संपत्तियाँ दान में दे दूँ तो भी कम है, इसलिए आप कहो कि मेरे द्वारा किस तरह आपका प्रत्युपकार हो सके? देव ने कहा कि जब तूं श्री जिनेश्वर भगवान के चरण कमल में दीक्षा स्वीकार करेगा तब हे राजन्! निःसंशय तुम ऋण मुक्त होंगे। राजा ने 'उसे स्वीकार किया' फिर शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले राजा को उसके स्थान पर पहुँचाकर देव जैसे आया था वैसे वापिस स्वर्ग में चला गया। राजा भी अपने-अपने स्थान पर सुभट हाथी, घोड़ें, महल और रानी को देखकर मन में आश्चर्यपूर्वक विचार करने लगा कि-अहो! देव की शक्ति! उन्होंने उपद्रव दिखाकर पुनः उसी तरह उपशम कर दिया कि उसे दृष्टि से देखने वाला मनुष्य भी समझ नहीं सकता है। ऐसे अति सामर्थ्यपूर्वक देवभव का स्मरण करके भी हे जीवात्मा! तेरी बुद्धि मनुष्य के तुच्छ कार्यों में क्यों राग करती है? अथवा हे निर्लज्ज! वमन पित्त आदि अशुचिवाले और दुर्गन्धमय मल से सड़ने वाले भोगों में तुझे प्रेम क्यों उत्पन्न होता है? अथवा क्षणभंगुर राज्य और विषयों की चिन्ता छोड़कर तूं एक परम हेतुभूत मोक्ष की इच्छा क्यों नहीं करता? और वह उत्तम दिन कब आयेगा कि जिस दिन सर्व राग का त्यागकर उत्तम मुनियों के चरण की सेवा में आसक्त होकर मैं मृगचर्या मृग के समान विहार करूँगा? वह उत्तम रात्री कब आयेगी कि जब काउस्सग्ग ध्यान में रहे मेरे शरीर को खम्भे की भांति से बैल अपनी खुजली के लिए कंधा या गर्दन घिसेंगे? मेरे लिये कब वह मंगलमय शुभ घड़ी आयेगी जब मैं स्खलित आदि वाणी के दोषों से रहित श्री आचारांग आदि सूत्रों का अभ्यास करूँगा? अथवा वह शुभ समय कब होगा कि जब मैं अपने शरीर को नाश करने के लिए तत्पर बने जीव के प्रति भी करुणा की विनम्र नजर से देखूगा? या कब गुरु महाराज द्वारा अल्प भूल को भी कठोर वचनों से जाग्रत कराता हुआ मैं हर्ष के वेग से परिपूर्ण रोमांचित होकर गुरु की शिक्षा को स्वीकार करूँगा? और वह दिन कब आयगा कि जब लोक-परलोक में निरपेक्ष होकर मैं आराधना करके प्राण-त्याग करूँगा? इस प्रकार संवेग रंग प्राप्त करते राजा जब विचार करता है। उसी समय संसार की अनित्यता की विशेषता बताने के लिए मानों न हो, इस तरह सूर्य अस्त हो गया। उसके पश्चात् सूर्य की लाल किरण के समूह से व्याप्त हुआ जीवलोक मानो जगत का भक्षण करने की इच्छावाला यम क्रूर आँखों की प्रभा के विस्तार से घिरा हो ऐसा लाल दिखा, अथवा विकास होती संध्या पक्षियों के कलकलाट से मानों ऐसा कह रही हो कि यम के - 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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