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________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा समान यह अंधकार फैल रहा है, इसलिए हे मनुष्यों! आत्महित करना चाहिए। फिर मुनि के समान रात्री के आवेग को निष्फल करने वाले और अंधकार को हटाने वाले तेज से निर्मल तारा समूह प्रकाशित हुआ । फिर समय होने पर जैसे सीप में से मोती का समूह प्रकट होता है वैसे चन्द्र पूर्व दिशा रूप शुक्ति (सीप) संपुट में उदय हुआ। इस प्रकार रात्री का समय हुआ तब रात्री के प्रथम प्रहर के कार्य करके सुखशय्या में बैठकर राजा विचार करने लगा कि : - वह पुर, नगर, खेटक, कर्बट, मंडल, गाँव आश्रम आदि धन्य हैं कि जहाँ पर तीन जगत के गुरु श्री महावीर परमात्मा विचरते हैं । यदि तीन जगत के एक बन्धुरूप भगवान इस नगर में पधारें तो मैं दीक्षा लेकर दुःखों को तिलांजली दे दूँ। इस तरह विचार करते राजा के चिंतन प्रवाह को प्रतिपक्ष (विरति) प्रति कोपायमान अविरति रोकती है वैसे प्रतिपक्ष चिंतन दशा के प्रति कोपायमान निद्रा ने रोक दिया, अर्थात् शुभचिंतन करते राजा सो गये और विचार प्रवाह रुक गया । रात्री के अंतिम समय राजा को स्वप्न आया कि अपने आपको उत्तम बल वाले पुरुष द्वारा बड़े पर्वत के शिखर पर आरूढ़ कराता हुआ देखा। प्रातः मांगलिक और जय - सूचक बाजों की आवाज से जागृत होकर राजा विचार करने लगा कि - निश्चय ही आज मेरा कोई परम अभ्युदय होगा । किन्तु जो महाभाग मुझे पर्वत आरोहण करने में सहायक हुआ है वह पुरुष उपकार द्वारा मेरा परम अभ्युदय में एक हेतुभूत होगा ऐसा दिखता है। राजा इस प्रकार विकल्प कर रहा था, इतने में द्वारपाल ने शीघ्रता से आकर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर कहा कि - हे देव! हाथ में पुष्प की माला लेकर उद्यानपालक आपके दर्शन के लिए दरवाजे पर खड़ें हैं तो इस विषय में मुझे क्या करना चाहिए? राजा ने कहा- उन्हें जल्दी ले आओ। इससे उसने आज्ञा को स्वीकारकर उसी समय उद्यानपालकों को लेकर राजा के पास ले आया। उद्यानपालकों ने राजा को नमनकर पुष्पमाला अर्पण की और हाथ जोड़कर कहा - हे देव! आप विजयी हो ! आपको बधाई हो कि - तीन लोक को प्रकाश करने में सूर्य के समान, तीन भवनरूपी सरोवर में खिले हुए कमलों की भ्रान्ति करते उज्ज्वल यश के विस्तार वाले, ।।४००|| तीन छत्रों ने जाहिर किये हुए स्वर्ग, मृत्यु और पाताल के श्रेष्ठ स्वामित्व वाले, तीन गढ़ से घिरे हुए, मणिमय सिंहासन ऊपर बैठे हुए, हर्ष की मस्ती वाले, देवों ने वधाने के लिए फेंके हुए प्रचुर पुष्पों की अंजलि द्वारा पूजे गये, संशयों को नाश करने में समर्थ, शास्त्र की धर्म कथा को करने वाले, इन्द्र हाथ से सहर्ष कुमुद और बर्फ समान उज्ज्वल चामरों के समूह से पूजित, विकसित श्रेष्ठ पत्तों वाले अशोक वृक्ष द्वारा आकाश मंडल को शोभायमान करने वाले, सूर्य से भी प्रचंड तेजस्वी भामण्डल से अन्धकार को नाश करने वाले, देवों ने बजाई हुई दुंदुभि की अवाज से प्रकटित अप्रतिम शत्रुओं के विजय वाले, गणनातीत मनोहर सुरेन्द्र और असुरेन्द्र के समूह से पूजित चरण कमल वाले और शरणागत वत्सल भगवान श्री महावीर देव स्वयंमेव पधारे हुए हैं । । ४०५ ।। ऐसी बधाई को सुनने से अत्यन्त श्रेष्ठ हर्ष द्वारा शरीर में प्रकट हुआ निबिड रोमांचित वाला तीन लोक की भी लक्ष्मी हस्त कमल में आयी हो इस तरह मानता हुआ और 'वे ये भगवान पधारे हैं कि जिन्होंने स्वप्न में मुझे पर्वत के शिखर ऊपर आरूढ़ किया है, अतः उनके द्वारा में संसार पारगामी बनूँगा ।' ऐसा चिंतन करते राजा उन उद्यानपालकों को साढ़े बारह लाख सोने की मोहर प्रेमपूर्वक दान देकर जल्दी ही सारा अंतपुर और नगर लोगों से घिरा हुआ तथा याचकों से स्तुति करवाता, हाथी पर बैठकर जगद् गुरु को वंदन करने के लिए नगर में चला, फिर दूर से भगवान के छत्र ऊपर छत्र देखकर प्रसन्न मनवाले उसने छत्र चामरादि राज चिह्न को छोड़कर पांच प्रकार के अभिगम सहित उत्तर दिशा के द्वार से समवसरण में प्रवेश किया, हर्ष के आवेश से 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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