SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विरप्रभु का उपदेश श्री संवेगरंगशाला विकसित नेत्रों वाला वह राजा प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी पीठ को स्पर्श करते मस्तक द्वारा बार-बार नमस्कार कर और हस्तपल्लव ललाट पर लगाकर स्तुति करने लगा कि : 'निर्मल केवल ज्ञान के प्रकाश द्वारा मिथ्यात्व रूपी भयंकर अंधकार के विस्तार को नाश करने वाले हे भगवंत! आपकी जय हो! फैले हुए प्रबल कलिकाल रूपी बादलों को बिखेरने में महावायु के समान आपकी जय हो! उग्र पवन के समान महावेग वाले इन्द्रियों रूपी घोड़ों के समूह को वश करने से आप तीन भुवन में प्रसिद्ध हे भगवंत! आपकी जय हो! तीनों जगत में प्रसिद्ध सिद्धार्थ राजा के कुलरूपी कमल को खिलने के लिए सूर्य समान आपकी जय हो! जिनके सूर्य समान उग्र महान् प्रताप से कुतीर्थियों की महिमा नष्ट हुई ऐसे आप श्री की जय हो! युद्ध, रोग, अशिव आदि के उपशम भाव में समर्थ और केवल आपका ही नामोच्चार करने योग्य हे देव! आपकी जय हो! हे देवेन्द्रों के समूह से वंदनीय, दृढ़ राग द्वेष रूपी काष्ठ को चीरने में आरा तुल्य और मोक्ष सुख आपके हाथ में है ऐसे हे महावीर परमात्मा आप विजयी हो! और हे अरिहंत देव! उपसर्ग समूह के सामने भी आपकी अक्षुब्धता-स्थिरता गजब की थी तो आपके चरण अंगुली दबाने मात्र से भी चलित शिखर वाले मेरु पर्वत की उपमा आपको कैसे दें? हे नाथ! आपका तेज और सौम्यता अद्वितीय है उसकी उपमा सूर्य और चन्द्र से कैसे दे सकते हैं? क्योंकि दिन और रात के अंतिम समय में सूर्य और चन्द्र का तेज मन्द अल्प हो जाता है परन्तु आपका तेज और सौम्यता अखण्ड है। हे जिनेश्वर भगवान! आपकी गंभीरता को भी, दुष्ट प्राणियों के क्षोभ को जो (समुद्र) छुपा नहीं सकता सहन नहीं कर सकता (उछलने लगता है) उस समुद्र के जैसी कैसे कहा जाय? अतः समुद्र की गंभीरता सामान्य है आपकी गंभीरता सर्वश्रेष्ठ है। इस तरह सारी उपमाएँ अति असमान होने पर भी हे भुवननाथ! यदि आपको उपमा दे तो आपकी ही उपमा आपको दे सकते हैं, और इस विश्व में आपके समान कोई नहीं है, ऐसा मैं समझता हूँ। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति कर गौतम स्वामी आदि गणधरों को नमस्कार कर के प्रसन्न चित्त वाला राजा अपने योग्य स्थान पर पृथ्वी पर बैठा। उसके बाद श्री जगद्गुरु वीर परमात्मा ने नर, तिर्यंच और देव सब समझ सके ऐसी सर्व साधारण वाणी द्वारा (मागध भाषा में) अमृत की वृष्टि समान धर्म उपदेश देना प्रारंभ किया ।।४२२।। वीरप्रभु का उपदेश : हे देवानुप्रिय! यद्यपि तुम्हें भाग्योदय द्वारा अति मुश्किल से समुद्र में पड़े रत्न के समान अति दुर्लभ मनुष्यत्व मिला है और चिन्तामणी के समान मनवांछित सकल प्रयोजन के साधन में एक समर्थ लक्ष्मी भी भुजबल से तुमने प्राप्त की है। तुम्हारे पुण्य प्रकर्ष से इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि किसी प्रकार का दुःख अल्प भी तुमने नहीं देखा है, खिले हुए नील कमल की माला समान दीर्घ नेत्रों वाली तरुण स्त्रियों में तुम्हें अत्यन्त गाढ़ राग हुआ परन्तु वह राग अभी तक कम नहीं हुआ, तो भी तुम एक क्षण के लिए मन को राग द्वेष रहित बनाकर, मनुष्य जन्मादि जो तुम्हें मिला है उसके स्वरूप के विषय में निपुण बुद्धि से इस तरह बार-बार चिन्तन करो किः- यह जन्म, मुश्किल से मिला हुआ मनुष्य जीवन धर्म आराधना नहीं करने से बेकार ही खत्म हो जाता है तो पुनः भाग्योदय द्वारा महा मुश्किल से प्राप्त होता है। क्योंकि-पृथ्वीकाय आदि में जीव असंख्यकाल तक रहता है और वह जीव वनस्पति में गया हुआ वहाँ अनन्तकाल तक रहता है। इसी प्रकार अन्य विविधहीन योनियों में अनेक बार परिभ्रमण करते जीव को पुनः इस मनुष्य भव की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है? समस्त अन्य मनोवांछित कार्यों को यह जीव देवलोकादि में प्राप्त कर सकता है फिर भी शिव सुख साधन में समर्थ यह उत्तम मनुष्य जीवन निश्चय ही दुर्लभ है। 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy