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श्री संवेगरंगशाला
विरप्रभु का उपदेश अति महाक्लेशों से मिलने वाली, दुःख से रक्षण कर सके ऐसी लक्ष्मी है। वह भी स्वजन, राजा, चोर, याचक आदि सर्व की साधारण है। परन्तु आपत्ति का कारणभूत, मूढ़ता करनेवाली, एक ही जन्म के सम्बन्ध वाली, और शरद के बादल के समान अस्थिर उस लक्ष्मी में आनन्द मानना-राग करना हानिकारक है। और जिस किसी भी प्रकार से वर्तमान में इष्ट वियोगादि दुःख नहीं आया, तो इससे क्या हुआ? इससे सदाकाल उसका अभाव हुआ है? ऐसा निश्चय नहीं है। क्योंकि सिद्धों को छोड़कर तीनों लोक में ऐसा अन्य जीव नहीं है कि जिसे शारीरिक-मानसिक दुःख प्रकट न हो। इस कारण से ही भव भीरु मनवाले महापुरुषों को सर्व संग का त्यागकर मोक्ष सुख के लिए सतत् उद्यम करना चाहिए। यदि इस संसार में इष्ट वियोग आदि थोड़ा भी दुःख न हो तो कोई भी मोक्ष के लिए दुष्कर तपस्या न करता। इस बात का दृढ़तापूर्वक विचार करों। और स्त्रियों में जो राग है वह भी किंपाक के फल समान प्रारम्भ में मधुर और अन्त में कड़वा है। असंख्य भवों को बढ़ाने वाली मन के शुभाशय को नाश करने वाली और उत्तम पुरुषों के त्याग करने योग्य स्त्री को मन से भी याद नहीं करना चाहिए। इस जगत में जो कोई भी संकट है, जो कोई दुःख है और जो कोई निन्दापात्र है उन सबका मूल यह एक स्त्री ही है। भव समुद्र को पार भी उन्होंने ही किया है, और उन्होंने ही सच्चारित्र से पृथ्वी को पवित्र किया है जिन्होंने ऐसी स्त्री को दूर से त्यागा है। इसलिए हे महानुभावों! अति निपुण बुद्धि से विचारकर, सदा धर्म-धन को प्राप्त करें, और उस व्यापार का उत्कंठा से आचरण करें ।।४४२।।
प्रभु ने जब ऐसा कहा, तब सविशेष बढ़ते शुभ भाव वाले राजा प्रभु को नमस्कार करके और दोनों हस्त कमल को मस्तक पर लगाकर कहने लगा कि-हे नाथ! प्रथम निजपुत्र का राज्याभिषेक करूँगा, उसके बाद आपके चरण कमल में संयम स्वीकार करूँगा। त्रिभुवन गुरु ने कहा-हे राजन्! तुम्हें ऐसा करना योग्य है, क्योंकि स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी संसार में अल्प भी राग नहीं करते हैं। फिर जिनेश्वर भगवान के चरणों में नमन करके राजा ने अपने महल में जाकर सामंत, मंत्रियों आदि प्रधान पुरुषों को बुलाकर गद्-गद् शब्दों में कहा किअहो! मुझे अब दीक्षा लेने की बुद्धि जागृत हुई है, इसलिए मैंने सत्ता के मद से अथवा अज्ञानता से जो कोई तुम्हारा अपकार रूप आचरण कुछ भी किया हो उस सर्व को खमाता हूँ मुझे क्षमा करना, और इस राज्य की वृद्धि करना। इस तरह उनको शिक्षा देकर जब शुभ मुहूर्त आया, तब उस पवित्र दिन में महा महोत्सवपूर्वक जयसेन पुत्र को राज्य पर स्थापन किया। फिर सामंत, मन्त्रीमण्डल आदि मुख्य परिजन सहित स्वयं स्नेह से उस नये राजा को दोनों हाथ की अंजलि से नमन करके हित शिक्षा दी कि :
__ स्वभाव से ही सदाचार द्वारा शोभते हे वत्स! यद्यपि तुझे कुछ भी सिखाने की जरूरत नहीं है, फिर भी मैं कुछ थोड़ा कहता हूँ कि-हे पुत्र! स्वामी, मन्त्री, राष्ट्र, वाहन, भण्डार, सेना और मित्र ये सातों के परस्पर उपकार से यह राज्य श्रेष्ठ बनता है। अतः सत्त्व को प्रगट कर के और बुद्धि से जैसे औचित्य का रक्षण हो सके इस तरह विचारकर इन सातों अंगों की प्राप्ति के लिए और वृद्धि के लिए तुम प्रयत्न करना। उसमें सर्वप्रथम तो तूं अपनी आत्मा को विनय में जोड़ना; उसके बाद अमात्यों को फिर नौकर और पुत्रों को और उसके बाद प्रजा को विनय में जोड़ना। हे वत्स! उत्तम कुल में जन्म, स्त्रियों के मन का हरण करने में चोर समान रूप, शास्त्र परिकर्मित बुद्धि और भुज बल, और वर्तमान में विवेकरूपी सूर्य को आच्छादित करने में प्रचण्ड शक्ति वाला, मोहरूपी महा बादलों का अति घन समूह समान यह खिलता हुआ यौवन रूपी अन्धकार, पण्डितों को प्रशंसनीय प्रकृति और प्रजा द्वारा शिरोमान्य होती आज्ञा, इसमें से एक-एक भी निश्चय ही दुर्जय है, इसके गर्व से बचना दुष्कर हैं तो फिर सभी का समूह तो अति दुर्जय बनता है। और हे पुत्र! जगत में भयंकर माना गया लक्ष्मी का
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