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महासेन राजा के पुत्र को उपदेश
श्री संवेगरंगशाला मद भी पुरुष को अतिविकल बनाकर शीघ्र कमीना बना देता है, तथा लक्ष्मी मनुष्यों को श्रुति-बहरा, वचनरहित और दृष्टि-रहित कर देती है। उसमें विसंवाद क्या है? अर्थात् वह उसका ऐसा ही कार्य है। और वह आश्चर्य है कि समुद्र में से देवों ने विष, लक्ष्मी आदि सात रत्न निकालें। उससे समुद्र में जन्मी हुई जहर की बहन होने पर भी मनुष्य को नहीं मारती है! परंतु विष रूपी लक्ष्मी से कईयों की मृत्यु आदि होती है। और पूर्व के पुण्यकर्म के परिपाक से वैभव, श्रेष्ठ कुल, श्रेष्ठ रूप और श्रेष्ठ राज्य भी मिलता है, लेकिन सर्व गुणों का कारणभूत विनय नहीं मिलता है। अतः अभिमान को त्यागकर विनय को सीखना परन्तु मद का अभिनय नहीं करना क्योंकिहे पुत्र! विनय से नम्र आत्माओं में महामूल्य वाले गुण प्रकट होते हैं। पृथ्वीतल में विद्वानों द्वारा मुख रूपी दण्ड द्वारा जिसका यश रूपी पटह बजाया गया है। ऐसी धर्म, काम, मोक्ष, कलाएँ और विद्याएँ ये सभी विनय से मिलती हैं। लक्ष्मी भी विनय से मिलती है। जब दर्विनीत को मिली हई लक्ष्मी भी नाश होती है। इसलिए जीव लोक में सर्व गुणों का आधारभूत विनय ही है। अधिक क्या कहें? जगत में ऐसा कुछ नहीं कि जो विनय से प्राप्त न हो! इस कारण से हे पुत्र! कल्याण का कुल भवन समान विनय को तुम जरूर स्वीकार करना।
और सत्त्व की, गोत्र की, और धर्म की रक्षा में बाधा न पहुँचे इस तरह धन का उपार्जन करना, उसको बढ़ाना और रक्षण करना तथा सुपात्र में सम्यग् रूप में दान देना, राज्य संपत्ति के ये चार भेद हैं। इसलिए हे पुत्र! तुम इन चारों के विषय में भी परम प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना। साम, भेद, दाम और दण्ड ये चार प्रकार की राजनीति है, उसे भी हे प्रिय पुत्र! तूं शीघ्र जान लेना, परन्तु उसमें यदि पूर्व-पूर्व की नीति से कार्य असाध्य बनें तो यथाक्रम दूसरी, तीसरी आदि नीतियों का यथायोग्य जहाँ-जहाँ जिसका प्रयोग हो, वहाँ-वहाँ उस तरह से सोच-विचारकर प्रयोग करना। क्योंकि यदि साम नीति से कार्य होता हो तो भेद नीति का उपयोग मत करना,
और भेद नीति में साम या दाम नीति का उपयोग मत करना। इसी प्रकार दाम आदि अन्य नीति का उपयोग नहीं करना। और नीति का सदैव प्राणप्रिय पत्नि के समान रक्षा करना, और अनीति को अन्याय रूप दुष्ट शत्रु के समान हमेशा रोकना, वस्त्र, आहार, पानी, आभूषण, शय्या, वाहन आदि का भोग करने के पूर्व उसमें विष का विकार है या नहीं? वह अप्रमत्त भाव से भृगराज आदि पक्षियों से जान लेना। विष की परीक्षा :
तमरू, तोता और मैना ये पक्षी प्रकृति से ही नजदीक में रहे सर्प का जहर देखकर उद्विग्न होकर करुण स्वर से रोते हैं। विष को देखकर चकोर की आँखें तुरन्त विरागी बनती है (बन्द हो जाती है) क्रौंच पक्षी स्पष्ट रूप में नाचता है, और मत्त कोकिल मर जाती है। भोजन करने के इच्छुक को अन्न की परीक्षा के लिए थोड़ा आहार अग्नि में डालकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए और उसके चिह्न भी सम्यग् रूप से जान लेने चाहिए।
यदि उसमें विष हो तो उसकी ज्वाला धुंएँ जैसी हो जाती है, अग्नि श्याम हो जाये और शब्द फटकर जैसे निकले तो समझना उसमें विष है। और ऐसे भोजन को स्पर्श करने से मक्खी आदि निश्चय रूप से मर जाती है। तथा विष मिश्रित अन्न में से जल्दी पानी नहीं छुटता है, जल्दी गीला नहीं होता है, रंग जल्दी बिगड़ जाता है, दहीं में श्याम और दूध में ताम्बे जैसी सामान्य लाल रेखाएँ हो जाती हैं। विष मिश्रित सर्व गीले पदार्थ सूखने लगते हैं। सूखे पदार्थों का रंग बदल जाता है और कठोर हो वह कोमल तथा कोमल हो वह कठोर हो जाते हैं। आवरण या ढेर वाली वस्तु में दाग हो जाते हैं और लोह, मणि आदि विष से मेल समान कलुषित हो जाता है। इस तरह हे पुत्र! सामान्यतया शास्त्र युक्ति से विष मिश्रित पदार्थों को जानकर उसका दूर से त्याग करना। 1. सुइवायदिट्टिहरणे नराण लच्छिए को विसंवायो। जं न कुणति गरल सहोयरा वि मरणं तमच्छरीयं ।।४५६।। 2. अभिधान चिंतामणि कोष,
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