________________
श्री संवेगरंगशाला
महासेन राजा का पुत्र को हितोपदेश, विष की परीक्षा और चार से छह कान में बात न जाय इस तरह गुप्त मंत्रणा करना, देश और काल के तारतम्य को जानने में कुशल बनना। उत्तम पदार्थों का दान कोई भी ऐसे वैसे को नहीं करना, और दान करे तो भी पात्रता देखना। सर्व कार्यों को अच्छी तरह परीक्षापूर्वक करना। उसमें भी सन्धि-विग्रह की परीक्षा विशेषतया करना, सर्वत्र औचित्य को जानना! कृतज्ञ, प्रियभाषी और सर्व विषय में उचित-अनुचित, पात्रापात्र कार्याकार्य, वाच्यावाच्य आदि का ज्ञाता बनना, श्रेष्ठ साधु के समान हे पुत्र! सदा निद्रा, भूख और तृषा का विजय सहन करना। सर्व परीषह सहन करने में समर्थ होना, अनाग्रही और गुणिजनों के प्रति वात्सल्य वाला बनना। मदिरा, शिकार और जुएँ को तो हे पुत्र! देखना भी नहीं। क्योंकि उससे इस लोक और परलोक में होने वाले दुःख नजर के सामने दिखते हैं और शास्त्रों में भी सुना जाता है। केवल विषय वासना को रोकने में असमर्थता के कारण सिवाय, स्त्रियों का अति परिचय तथा उनका विश्वास मत करना, क्योंकि-उन स्त्रियों से भी बहुत प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। तथा क्रोध, लोभ, मद, द्रोह, अहंकार, और चपलता का त्यागी बनना। तूं मत्सर, पैशुन्य, परोपताप और मृषावाद का भी त्याग करना। और सर्व आश्रमों (धर्मों) की तथा वर्णों की उनके वर्ण अनुसार मर्यादा का स्थापक या रक्षक बनना। तथा दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना। - और तूं अति ज्यादा कर प्रजा पर डालेगा तो सूर्य के समान तूं प्रजा का उद्वेग कारक बनेगा और अति हल्का कर (टैक्स) से चन्द्र के समान पराभव का पात्र बनेगा। अतः अति कठोर या अति हल्का कर लेने से भाव को बुद्धिपूर्वक अलग रखकर सर्वत्र द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुरूप व्यवहार करना। दीन, अनाथ, दूसरे से अति पीड़ित तथा भयभीत आदि सबके दुःखों का पिता के समान, सर्व प्रयत्नों से जल्दी प्रतिकार करना और जो विविध रोगों का घर है और आज-कल अवश्य नष्ट होने वाले शरीर के लिए भी अधर्म के कार्य में रुचि मत करना। हे पुत्र! ऐसा कुलीन कौन होगा कि तुच्छ सुख के लिए मूढ़ मति वाला बनकर असार शरीर के सुखों के लिए जीवों को पीडा दे। और देव. गरु तथा अतिथि की पूजा. सेवा. विनय करने में तत्पर बनना। द्र में शौचवाला होना। धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाला, तथा धार्मिक जनता के वात्सल्य को करने वाला होना।
सर्व जीवों की शुभ प्रवृत्ति सुख के लिए होती है और वह सुख धर्म के बिना नहीं मिलता है इसलिए हे पुत्र! धर्मपरायण बनना। तथा हे पुत्र! तूं 'मेरे रात्री, दिन कौन से गुण में व्यतीत होते हैं ऐसा विचार करते सदा स्थिर बुद्धि वाला बनेगा तो इस लोक और परलोक में दुःखी नहीं होगा। हे पुत्र! हमेशा सदाचार से जो महान हो उनके साथ परिचय करना। चतुर पुरुष के पास कथा श्रवण करना। और निर्लोभ बुद्धि वाले के साथ प्रीति करना। हे पुत्र! सत्पुरुषों के द्वारा निर्देश की हुई अधम आत्म प्रशंसा (स्व प्रशंसा) जो कि विष मूर्छा के समान पुरुष को विवेक रहित करती है उसका त्याग करना। जो मनुष्य आत्म प्रशंसा करता है निश्चय वह निर्गुणत्व की निशानी है, क्योंकि यदि उसमें गुण होता तो निश्चय अन्य जन अपने आप उसकी प्रशंसा करते।
स्वजन या परजन की भी निन्दा विशेषकर त्याग करने योग्य है। आत्महित की अभिलाषा वाला तूं सदा परगुण को देखने वाला, गुणानुरागी बनना। हे पुत्र! परगुण प्रति मात्सर्य, स्वगुण की प्रशंसा, अन्य को प्रार्थना करना, और अविनीतपन, ये दोष महान् व्यक्ति को भी हल्का बना देते हैं ।।५००।।
___ पर निन्दा का त्याग, स्वप्रशंसा सुनकर भी लज्जालु होना, संकट में भी प्रार्थना नहीं करना और सुविनीतमय जीवन वाला व्यक्ति छोटा हो तो भी वह महान् बन जाता है। परगुण ग्रहण करना, परजन सज्जन की इच्छानुसार चलना, हितकर और मधुर वचन बोलना, तथा अति प्रसन्न स्वभाव यह बिना मूल और मन्त्र का वशीकरण है।
28
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org