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________________ महासेन राजा का पुत्र को हितोपदेश श्री संवेगरंगशाला हे पुत्र! तुम्हें वैसा करना है कि जिससे प्रथम मन में वृद्ध अवस्था और फिर शरीर में वृद्ध अवस्था आ जाय, अर्थात वृद्ध होने के पूर्व भोगादि में सन्तोष धारण करना तथा हे वत्स! जिसने अति उन्माद यौवन को अपवाद बिना निर्दोष व्यतीत किया, उसने दोष भण्डार जैसे इस संसार में, इस जन्म में कौन-सा फल प्राप्त नहीं किया? अर्थात् उसने पूर्णरूप से सब कुछ प्राप्त किया है। यह श्रेष्ठ स्वभाव वाला है, यह शास्त्र के परमार्थ को ह जानता है. यह क्षमावंत है और यह गणी है इत्यादि किसी धन्य परुष की ही ऐसी घोषणा सर्वत्र फैलती है। तथा हे वत्स! गुणों के समूह को अपने जीवन में इस तरह स्थिर करना कि जिससे मुश्किल से दूर हो सके ऐसे दोषों को रहने का अवकाश ही न रहे। पथ्य और प्रमाणोपेत भोजन का तूं ऐसा भोगी बनना कि वैद्य तेरी चिकित्सा न करे। केवल राज्य नीति के कारण उन्हें तूं अपने पास रखना। अधिक क्या कहूँ? हे पुत्र! तूं बहुत धर्म महोत्सव या आराधना करना, सुपात्र की परम्परा को हमेशा अपने पास रखना। अच्छे बाँस के समान और सरल प्रकृति वाला बनकर चिरकाल तक वर्तन करना। सौम्यता से प्रजा की आँखों को आनन्ददायी, कला का स्थान और प्रतिदिन गुणों की वृद्धि करते हुए चन्द्र जैसे समुद्र की वृद्धि करता है वैसे तूं प्रजाजन की वृद्धि करने वाला होना। प्रकृति से महान्, प्रकृति से दृढ़ धीरता वाला, प्रकृति से ही स्थिर स्वभाव वाला, प्रकृति से ही सुवर्ण रत्नमय निर्मल कान्तिवाला उत्तम वंश वाला, और पण्डितों का अनुकरण करने वाला हे पुत्र! तूं जगत में मेरु पर्वत के समान चिरकाल स्थिर प्रभुत्व को धारण करना। तथा गम्भीरता रूपी पानी से अलंकृत, गुणरूपी मणि का निधि, और अनेक नमस्कार के समह को स्वीकार करते तूं समुद्र के समान मर्यादा का उल्लंघन मत करना और इस संसार को असार, भयानक मानकर इससे उद्विग्न बनकर राज्य योग्य पुत्र को राज्यभार देकर आत्मसाधना के लिए अतिशीघ्र चारित्र-पथ का स्वीकारकर आत्मा को मुक्ति का राज्य प्राप्त करवाना। इस प्रकार महासेन राजा विविध युक्तियों से पुत्र को शिक्षा देकर सामंत, मन्त्री आदि को तथा नगर के लोगों को प्रेमपूर्वक कहता है कि इसके बाद अब यह तुम्हारा स्वामी है, चक्षुरूप है, और आधार है, इसलिए मेरे समान इसकी आज्ञा में सदा प्रवृत्ति करना। और राज्य को प्राप्तकर मैंने हास्य से क्रोध से या लोभ से यदि तुमको दुःखी किया हो वह अब मुझे क्षमा करने योग्य है। आप मुझे क्षमा करना ।।५१५ ।। फिर रानी कनकवती को उपदेश दिया कि-हे देवी! तूं भी अब मोह प्रमाद को छोड़कर सर्व विरति का आचरण कर और संसारवास से मुक्त हो। जहाँ हमेशा विनाश करने वाला यमराज निश्चय से पास में ही रहता है, उस संसार में स्वजन, धन और यौवन में राग करने का स्थान कौन-सा है? संयम के लिए तैयार हए राजा की वाणी रूप वज्र से दुःखी हुई रानी आँसू के प्रवाह से व्याकुल हुई इस प्रकार बोली साध-जीवन तो वद्धत्व में योग्य है. अब वर्तमान में संयम लेने का कौन-सा प्रसंग है? राजा ने कहा-बिजली की चमक के समान चंचल जीवन में वृद्धत्व आयगा या नहीं उसको कौन जानता देवी ने कहा-तुम्हारी सुन्दर शरीर की कान्ति दुःसह परीषहों को कैसे सहन करेगी? राजा-हड्डी और चमड़ी से गूंथी हुई इस काया में क्या सुंदरता है? देवी-थोड़े दिन अपने घर में ही रहो, किसलिए इतने उत्सुक हो रहे हो? राजा-श्रेय कार्य बहुत विघ्नोंवाले होते हैं, इसलिए एक क्षण भी रुकना योग्य नहीं है। देवी-फिर भी अपने पुत्र की राजलक्ष्मी का श्रेष्ठ उत्सव तो देखो। - Jain Education International 29 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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