________________
श्री संवेगरंगशाला
महासेन राजा का रानी कनक्वतीको हितोपदेश
राजा-संसार में अनन्त बार परिभ्रमण करते क्या नहीं देखा गया है? देवी-विशाल राजलक्ष्मी होने पर भी दुष्कर इस चरित्र से क्या लाभ है? राजा-शरद ऋत के बादल समान नाशवंत इस लक्ष्मी में तझे क्यों विश्वास होता है? देवी-पाँच इन्द्रियों के विषयभूत पाँच प्रकार के श्रेष्ठ विषयों को अकाल क्यों छोड़ते हो? राजा-आखिर में दुःखी करने वाले उन विषयों का स्वरूप जानकर कौन उसका स्मरण करे? देवा-तुम जब दीक्षा स्वीकार करोगे, तब स्वजन-वर्ग चिरकाल विलाप करेगा तो।। राजा-धर्म निरपेक्षता के कारण स्वजन वर्ग अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही विलाप करते हैं।
इस तरह दीक्षा विरुद्ध बोलती रानी को देखकर राजा बोला-हे महानुभावे! इसमें तुझे राग क्यों होता है? आज से तीसरे भव में मेरे वचन सुनकर सर्व संग का त्यागकर तुमने दीक्षा ली थी, वह क्यों भूल गयी हो? तुम सौधर्म देवलोक में मेरी देवी रूप में उत्पन्न हुई थी और वर्तमानकाल में दृढ़ प्रेम बढ़ने से मुझ पर रागी बनी तूं पुनः यहाँ भी मेरी पत्नी बनी है। ऐसा राजा ने जब कहा तब रानी पूर्व जन्म के वृत्तान्त को स्मरणकर दोनों हाथ जोड़कर बोली कि हे राजन्! वृद्ध गाय समान विषयरूपी कीचड़ में फंसी हुई मुझे उपदेश रूपी रस्सी द्वारा खींचकर तुमने उद्धारकर बाहर निकाला है। अब मेरा विवेक रत्न प्रकट हुआ है। मेरी घर- निवास की इच्छा भी खत्म हो गयी है, और मेरा मोह नष्ट हो गया है। इससे पूर्व के सदृश वर्तमान में भी श्रमण दीक्षा को स्वीकार करूँगी। आज से स्वप्न तुल्य गृहवास से कोई प्रयोजन नहीं है ।।५३२।।
इस तरह रानी के कहने से राजा का उत्साह विशेष बढ़ गया और स्नान विधि करके स्फटिक समान उज्ज्वल वस्त्रों को धारणकर कैद में बंद और बाँधे हुए अपराधी मनुष्यों को छोड़कर नगर में सर्वत्र अमारिपटह की उद्घोषणा कर श्री जिन मंदिर में पूजा, सत्कार और महा महोत्सव करवाकर, कर माफ करके, धार्मिक मनुष्यों को सन्तोष देकर, सेवक वर्ग का सम्मान करके, याचकों को मुँह मांगा दान देकर, उचित विनयादिपूर्वक प्रजावर्ग को समझाकर, अनुमति प्राप्तकर, शरीर में उछलते हर्ष से रोमांचित बना हुआ राजा रानी के साथ हजारों पुरुषों द्वारा उठाई हुई शिबिका में बैठकर श्री जिनेश्वर भगवान के चरण कमल के पास में जाने के लिए चला। उस समय मकानों के शिखर पर चढ़कर नगर जन अत्यन्त अनिमेष नजर से उनके दर्शन कर रहे थे, और हृदय को सन्तोष देने में चतुर तथा सद्भूत यथार्थ महाअर्थ वाली श्रेष्ठ वाणी द्वारा अनेक मंगल-पाठक उनकी स्तुति कर रहे थे। उसके बाद गंभीर दुंदुभि के अव्यक्त आवाज से सम्मिश्रित असंख्य शंखों के बजाने से प्रकट हुई जीज द्वारा आकाश भी गूंज उठा, और प्रलयकाल के पवन से उछलते खीर समुद्र की आवाज का खयाल दिलाने वाले चार प्रकार के बाजों को सेवक बजाने लगे, तथा परम हर्ष के आवेश में निकलते आँसू के जल से भीगी हुई आँखों वाली, संक्षोभवश खिसक गये, कंदोरा आदि आभूषण के समूह वाली और मानव समूह को आनन्द देने में समर्थ वारांगनाओं ने सर्व आदरपूर्वक अनेक प्रकार के अंगों को मरोड़कर श्रेष्ठ नृत्य किया।
इस तरह परम वैभव के साथ समवसरण के स्थान पर आया हुआ राजा पालकी में से उतरकर प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुति करने लगा कि-जन्म-मरण के भय को निवारण करने वाले, शिव सुखदाता, दुर्जय कामदेव को जीतने वाले, इन्द्रों द्वारा वंदनीय, स्तुत्य, लोग समूह के पापों का नाश करने वाले हे श्री वीर भगवान! आप विजयी रहें। इस तरह स्तुतिकर ईशान कोने में जाकर रत्नों के अलंकार और पुष्पों के समूह को शरीर पर से उतारें और फिर प्रभु को इस प्रकार विनती की कि- 'हे जगत् गुरु! हे करुणा निधि! प्रव्रज्या रूपी नौका का दान करके हे नाथ! मुझको अब इस भव समुद्र से पार उतारो।' राजा ने जब ऐसा कहा तब तीन भवन में एक
30 Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org