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________________ महासेन नुनि को प्रभु की हित शिक्षा श्री संवेगरंगशाला सूर्य सदृश प्रभु ने अपने हाथ से उसको असंख्य दुःख से मुक्त करने में समर्थ दीक्षा दी, ।।५४५ ।। फिर भगवान ने शिक्षा दी :प्रभु की हित शिक्षा : अहो! यह दीक्षा तुमने महान् पुण्योदय से प्राप्त की है। इस कारण से अब तुमको प्रयत्नपूर्वक प्राणिवध, असत्य, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह के आरम्भ को मन, वचन, काया के योग द्वारा करना कराना और अनुमोदन तीन करण द्वारा यावज्जीव तक अवश्य छोड़ देना चाहिए, और कर्म के नाश में मूल कारण बारह प्रकार के तप में विशेष रूप में हमेशा प्रमाद को छोड़कर शक्ति अनुसार प्रयत्न करना चाहिए। धन धान्यादि द्रव्यों में, गाँव, नगर, खेत, कर्बट आदि क्षेत्र में, शरद् आदि काल में तथा औदयिक आदि भावों में अल्प भी राग अथवा द्वेष भन से भी करने योग्य नहीं है, क्योंकि-फैले हुए संसाररूपी महावृक्ष का मूल ये राग-द्वेष हैं। ऐसी चिरकाल तक शिक्षा देकर प्रभु ने कनकवती साध्वी को चन्दनबाला को सौंपा और महासेन मुनि को स्थविर साधुओं को सौंपा। उसके बाद वह महात्मा महासेन स्थविर मुनियों के पास सूत्र अर्थ का अध्ययन करते गाँव, नगरों से विभूषित वसुन्धरा के ऊपर विचरने लगे। इधर कुछ दिनों में केवली पर्याय का पालन कर श्री महावीर प्रभु ने पावापुरी में अचल और अनुत्तर शिव सुख (निर्वाण पद) को प्राप्त किया। उस समय महासेन मुनि ने इस तरह विचार किया-अहो! कृतान्त को कोई असाध्य नहीं है, ऐसे प्रभु ने भी नश्वर भाव को प्राप्त किया है। जिनकी पादपीठ नमन करते इन्द्रों के समूह के मणिमय मकट से घिस जाती है, जिनके चरण के अग्रभाग से दबने पर पर्वत सहित धरती तल कम्पायमान होता है पृथ्वी तल को छत्र और मेरुपर्वत को दण्ड करने का जिसमें श्रेष्ठ सामर्थ्य है और कल्पवृक्ष आदि श्रेष्ठ प्रातिहार्य की शोभा से जिनका ऐश्वर्य प्रकट हुआ है उनको भी यदि अत्यन्त दुर्निवार अनित्यतावश करता है तो असार शरीर वाले मुझ जैसे की क्या गणना है? अथवा तीन जगत के एक पूज्य जगद्गुरु का शोक करना योग्य नहीं है क्योंकि उन्होंने कर्म की गाँठ को तोड़कर शाश्वत स्थान प्राप्त किया है। मैं ही शोक करने योग्य हूँ, क्योंकि जैसे कोई व्यक्ति बेडियों से अत्यन्त जकड़ा हुआ कैदखाने में रहा है, वैसे संसार में आज भी कठोर कर्म के बन्धन से जकड़ा हुआ मैं रहा हूँ अथवा जरा से जर्जरीत मुझे इस शरीर से क्या विशेष लाभ होने वाला है कि जिससे मैं नित्य तपस्या करने में उद्यम नहीं कर रहा हूँ? इसलिए इसके बाद मुझे विशेष आराधना करनी चाहिए, परन्तु निश्चिंत और सुविस्तृत अर्थ वाली उक्त विशेष आराधना को किस तरह जानना? अथवा इस चिन्तन से क्या लाभ? अभी केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले गणधरों के इन्द्र श्री गौतम स्वामी के पास जाऊँ, और एकाग्र चित्तवाला होकर साधु और गृहस्थ सम्बन्धी भेद-प्रभेद वाली उक्त आराधना की विधि को पूँछु। और मैं वहाँ जाकर उस विधि को विस्तारपूर्वक जानकर स्वयं आचरण करूँ और अन्य भी योग्य जीवों को कहूँ। प्रथम सम्यक् प्रकार से जानना, फिर उसका आचरण करना और उसके बाद दूसरों को उपदेश देना, क्योंकि-जिसने अर्थ को यथार्थ रूप से नहीं जाना वह उपदेशक अपना और दूसरों का नाश करता है। ऐसा सोचकर कलिकाल पर विजय प्राप्त करने में बद्धलक्ष्य वाले प्रत्यक्ष धर्मराजा के समान वे महात्मा महासेन मुनि श्री गौतम स्वामी के पास चले। प्रलयकाल में सूखी हुई गंगा नदी के पवन से तरंग प्रवाह जैसे मन्द चलता है, वैसे तप से शरीर दुबला हो जाने से धीरेधीरे भूमि के ऊपर कदम रखते शरीर पर लगी हुई पापरज को लगातार साफ करते हो इस तरह वृद्धावस्था के कारण, हाथ, पैर, मस्तक, पेट आदि सर्व अंगों से काँपते हुए, युग प्रमाण दृष्टि से आगे देखते हुए उनके (गुरु 1. पढ़मं सम्मं नाणं पच्छा करणं परोवएसो या अमुणियजहट्टियत्था, परमप्पाणं च नासिंति ।।५६५|| 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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