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श्री संवेगरंगशाला श्री गौतमस्वामी का महासेन मुनि को उपदेश-ज्ञान की सामान्य आराधना गौतम के) पास जाकर विनयपूर्वक शरीर को नमाकर उस महासेन मुनि ने तीन प्रदक्षिणापूर्वक श्री गौतम गणाधीश को वन्दन किया और हर्षावेश से विकसित नेत्र वाले, खिले हुए कलियों समान हस्त कमल को ललाट पर लगाकर अद्भुत वचनों से स्तुति करने लगे :
हे त्रिलोक के सूर्य! हे जगद्गुरु! हे वीर जिन के प्रथम शिष्य! हे भयंकर भवाग्नि से संतप्त शरीर वाले जीवों की शान्ति के लिए मेघ समान! आपकी विजय हो। नयोरूपी महा उछलते तरंगों वाली बारह निर्मल अंग वाली (द्वादशांगी रूप) गंगा नदी के आप उत्पादक होने से हे हिमवंत महापर्वत तुल्य गुरुदेव! आप विजयी बनो। अक्षीण महानसी लब्धि द्वारा पन्द्रह सौ तापसों को परम तृप्ति देने वाले, तथा अत्यन्त प्रसिद्ध अनेक लब्धियों रूपी उत्तम समृद्धि से सम्पन्न, हे प्रभु! आपकी जय हो। हे धर्मधुरा को धारण करने वाले एक वीर! आप विजयी बनों। हे सकल शत्रुओं को जीतनेवाले गुरुदेव! आपकी जीत हो! और सर्व आदरपूर्वक देव यक्ष और राक्षसों द्वारा वंदन किये जाते चरण कमल वाले, हे प्रभु! आप विजयी बनें। जगत् चुडामणि श्री वीर प्रभु ने तीर्थ रूप में बतलाये हुए निर्मल छत्तीस गुणों की पंक्ति के आधारभूत, हे भगवंत! मेरे ऊपर कृपा करो, और हे नाथ! मुझे साधु और गृहस्थ की आराधना की विधि विस्तारपूर्वक भेद-प्रभेद दृष्टान्त और युक्ति सहित समझाओं ऐसा कहकर वह मुनि रुक गया। तब स्फुरायमान मणि समान मनोहर दाँत की कान्ति से आकाश तल को उज्ज्वल करते हो इस तरह श्री गौतमस्वामी ने इस प्रकार कहा- ।।५७७।।
हे देवानुप्रिय! हे श्रेष्ठ गुण रत्नों की श्रेष्ठ खान! हे अति विशुद्ध बुद्धि के भण्डार! तुमने यह सुन्दर पूछा है क्योंकि-कल्याण की परम्परा से पराङ्गमुख पुरुषों की सुदृष्ट परमार्थ को जानने की मनोरथ वाली बुद्धि कभी भी नहीं होती है। इसलिए हे निरुपम धर्म के आधारभूत दुर्धर और प्रकृष्ट ताप के भार को उठाने वाले महामुनि महासेन! यह मैं कहता हूँ, उसे तुम सुनो। इस तरह दीक्षित महासेन मुनि ने साधु और गृहस्थ की आराधना को जिस तरह पूछा था और श्री गौतम प्रभु ने जिस तरह महासेन मुनि वरिष्ठ को कहा था उसी तरह में अर्थात् जिनचन्द्र सूरि सूत्रानुसार कहता हूँ।
इस जिन शासन में राग-द्वेष को नाश करने वाला और अनुपकारी भी अन्य जीवों को अनुग्रह करने में तत्पर श्री जिनेश्वर देव ने इस आराधना को शिवपथ का परमपथ कहा है। अति गहरे जल वाले समुद्र में गिरे हुए रत्न के समान व्यवहार नय मतानुसार कोई जीव भाग्य से यदि किसी तरह उस आराधना को प्राप्त करता है, तो उसकी नित्य उत्तरोत्तर वृद्धि द्वारा प्रति समय में आत्मा को विशिष्ट कार्यों में स्थिर करना चाहिए। इस तरह करने से श्री जिन शासन में प्रसिद्ध आराधना के क्रम में कुशल आत्मा को जैसे संपूर्ण सेवाल से भरे तालाब में कभी कछुआ चन्द्र दर्शन प्राप्त करता है, वैसे मोक्ष मार्ग प्राप्त होता है। और उसका मनुष्य जीवन सफल होता है। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या प्रयोजन? अब जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप की निरतिचार आराधना करने की है, वह चार स्कन्ध वाली आराधना यहाँ कहते हैं। यह आराधना सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार की है, उसमें प्रथम सामान्य से कहते हैं :ज्ञान की सामान्य आराधना :
सूत्र पढ़ने का जो समय कहा है, उस सूत्र को उस काल में ही, सदा विनय से, अतिसन्मानपूर्वक, उपधान पुरस्सर तथा जो जिसके पास अध्ययन करना हो उसका उस विषय में निश्चय रूप से अनिह्नवणपूर्वक, सूत्र, अर्थ और तदुभय को विपरीत रूप नहीं परन्तु शुद्ध रूप से इस तरह ज्ञान के आठ आचार के पालनपूर्वक जो श्रेष्ठ वाचना, पृच्छना, परावर्तना, प्ररूपणा-धर्म कथा और उसी की ही परम एकाग्रता से जो अनुप्रेक्षा करना।
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