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________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा बन्धु और स्वामी तुम्ही हो, तुम्हीं मेरे शरण रूप हो, और रक्षक हो तथा आप ही मेरे देव हो। अतः एक क्षण मुझे छोड़ दो, अब मेहरबानी करके शीतल पानी पिलाओ। इस प्रकार तूंने कहा, तब मधुरवाणी से उन्होंने कहा कि-अरे! वज्रकुंभि के मध्य में से निकालकर इस बिचारे को शीतल पानी पिलाओ तब अन्य परमाधामियों ने तहत्ति रूप स्वीकार करके तपे हुए अति गरम कलई, ताँबा और सीसे के रसपात्र भरकर (यह ठंडा जल है) ऐसे बोलते हुए उन महापापियों ने तुझे वह रस पिलाया, तब अग्नि समान उससे जलते और इससे गले को हिलाते इच्छा न होते हुए भी तेरे मुख को संडासी से खोलकर उस रस को गले तक पिलाया, फिर उस रस से जलते सम्पूर्ण शरीर वाला और मूर्छा आने से आँखें बंद हो गयी, इससे तूं जमीन पर गिर पड़ा, पुनः क्षण में चैतन्य आया 'असिवन में ठंडी है अतः वहाँ जाऊ' ऐसा संकल्पकर तूं वहाँ गया, परन्तु वहाँ के वृक्ष के पत्ते तलवार समान होने से, उसके नीचे बैठने से पत्तों द्वारा तेरा शरीर छेदन होने लगा। और वहाँ से भी तुझे उन्होंने उछलते तरंगों से व्याप्त, आवर्त्तवाली और प्रज्वलित अग्नि समान वैतरणी नदी के पानी में फेंका, वहाँ भी बिजली के समान उद्भट भयंकर बड़े-बड़े तरंगों की प्रेरणा के वश होकर डुबना, ऊपर आना, आगे चलना, रुक जाना आदि से व्याकुल बना, सर्व अंगों से युक्त तूं सूखे वृक्ष के लकड़े जैसे किनारे पर आ जाते हैं। वैसे महा मुसीबत से दुःख पूर्वक उस नदी के सामने किनारे पर पहुँचकर वहाँ बैठा, तब हर्षित बनें उन परमाधामियों ने बैठे हुए ही तुझे पकड़कर बैल के समान अतीव भार वाले रथ में जोड़ा और भाले समान तीक्ष्ण धार युक्त परोण (तलवार) से बार-बार तुझे छेदन करते थे। उसके बाद वहाँ तूं थक गया और जब किसी भी स्थान पर नहीं जा सका तब भारी हथौड़े द्वारा हे महाभाग्य तुझे चकनाचूर कर दिया ।।२५०।। इसके अतिरिक्त भी विकट शिलाओं के ऊपर तुझे जोर से पछाड़ा, भालाओं से भेदन किया, करवतों से छेदन किया, विचित्र यन्त्रों से पीसा, और अग्नि में पकाये हुए तेरे शरीर के मांस के टुकड़े कर तुझे खाने लगे, तथा विचित्र दण्डों के प्रहारों से बार-बार ताड़न किया, परमाधामियों ने बड़े शरीर वाले पक्षियों के रूप बनाकर तुझे दो हाथ से ऊँचा करके, करुण स्वर से रोते हुए भी अति तीक्ष्ण नखों से तथा चोंच से बार-बार मारा। इस प्रकार हे नरेन्द्र! नरक में उत्पन्न होकर तूंने जो दुःख अनुभव किया वह सर्व कहने के लिए तीन जगत के नाथ परमात्मा ही समर्थ हो सकते हैं। इस तरह एक सागरोपम तक भयंकर नरक में रहकर वहाँ असंख्य दुःखों को सहन करके, वहाँ से आयुष्यपूर्णकर तूं इस भरत क्षेत्र के अन्दर राजगृह नगर में भिखारी के कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, वहाँ भी अनेक रोग से व्याप्त शरीरवाला था, समयोचित भोजन, औषध और स्वजनों से भी रहित अत्यन्त दीनमन वाला, भिक्षा वृत्ति से जीने वाला तूंने यौवन अवस्था प्राप्त की, तब भी अत्यन्त दुःखी था, तूं बार-बार चिंतन करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो क्योंकि मनुष्यपने में समान होने पर भी और इन्द्रियाँ भी तुल्य होने पर भी मैं भिक्षा से जीता हूँ और ये धन्य पुरुष अति विलास करते हैं। कई तो ऐसा शोक करते हैं कि-अरे! आज हमने कुछ भी दान नहीं दिया, तब मैं तो क्लेश करता हूँ कि आज कुछ भी नहीं मिला। कई धर्म के लिए अपनी विपुल लक्ष्मी का त्याग करते हैं जबकि मेरे द्वारा कई स्थान पर खण्डित हुआ खप्पर भी नहीं छोड़ता हूँ, कई विवाहित श्रेष्ठ युवतियाँ होने पर भी वे मेरे सामने नजर भी नहीं करती, तब मैं तो केवल संकल्प रूप में ही प्राप्त हुई स्त्रियों से सन्तोष-हर्ष धारण करता हूँ अर्थात् स्त्री के सुख को स्वप्न में सेवन करता हूँ। कई उत्तम सुवर्ण जैसी कान्ति वाली काया को भी अशुचिमय मानते हैं, जबकि मैं रोग से पराभूत अपनी काया की प्रशंसा करता हूँ। कई भाट लोग 'जय हो, चिरम् जीवो, कल्याण हो' ऐसी विविध स्तुति करते हैं, तब भिक्षा के लिए गया हुआ मैं तो कारण बिना भी आक्रोश-तिरस्कार को प्राप्त करता हूँ। कई मनुष्य कठोर 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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