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________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला उतरने के मार्ग पर खड्डा खोदकर ऊपर घास आदि डालकर खड्डा ढक दिया और उसके ऊपर इस तरह धूल बिछा दी कि जिससे वह खड्डा जमीन जैसा हो गया, उसके बाद वृक्षों की घटा में छुपकर वे तुझे देखते रहे तूं भी उनको नहीं देखने से निःशंक मन वाला पूर्व की तरह पानी पीने आते विवश अंग वाला अचानक उस गड्ढे में गिरा, अरे तूं अतिपिड़ित है, चिर जीवित है, अब कहाँ जायगा? ऐसा कोलाहल करते युवा भिल्ल वहाँ आये और उन्होंने निर्दयता से तेरे कुंभस्थल को चीरकर उसमें से मोती और जीते ही तेरे दाँत को भी निकाल लिये उस समय भयानक वेदनारूप प्रबल अग्नि की ज्वालाओं के समूह से तपा हुआ तूं एक क्षण जीकर उसी समय मर गया। वहाँ से गंगा नदी के प्रदेश में हिरन रूप में उत्पन्न हुआ, वहाँ भी बाल अवस्था में तुझे तेरे यूथ के नायक हिरन ने मार दिया। वहाँ से मरकर मगध देश में शालि नामक गांव में सोमदत्त नाम के ब्राह्मण का तूं बन्धुदत्त नामक पुत्र हुआ और वहाँ ब्राह्मण के योग्य विद्याओं का तूंने अभ्यास किया, इससे यज्ञ की विधि में परम चतुरता से तूं 'यज्ञ चतुर' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे लोग जहाँ किसी स्थान पर स्वर्ग के लिए अथवा रोग शान्ति के लिए यज्ञ करते थे उसमें तुझे सर्वप्रथम ले जाते थे। वहाँ तूं भी यज्ञ की विधि को समझाता, विविध पाप स्थानों में प्रवृत्ति करता और परलोक के भय का अपमान करके अपने हाथ से बकरों को अग्नि में होमा करता था। ऐसा करते हुए बहुत समय व्यतीत हुआ एक दिन राजा ने बड़ा अश्वमेघ नामक महायज्ञ प्रारम्भ किया। उसमें राजा ने तुझे बुलाया, और परमभक्ति पूर्वक सत्कार किया, यज्ञ के लिए लक्षण वाले घोड़ों को एकत्रित किए। उन घोड़ों को तूंने वेद शास्त्र की प्रसिद्ध विधि से मंत्रित किया, इतने में ऐसी यज्ञ विधि देखते, एक घोड़े के बच्चे को किसी स्थान पर ऐसा देखा है ऐसा इहा अपोह (चिन्तन) करते-करते जातिस्मरण ज्ञान हुआ, और उस ज्ञान से उसे जानकारी हुई कि-पूर्व जन्म में यज्ञ विधि में विचक्षण बनें मैंने भय से कांपते बहुत पशु आदि को यज्ञ में होमा हैं। इस प्रकार पूर्व जन्म का पाप जानकर भय से दुःखी उसने चिंतन किया कि-अहो! मनुष्य धर्म के वास्ते भी पाप को किस तरह इकट्ठा करता है? ।।२२५।। भोले व्यक्तियों को वे कहते हैं कि-'यज्ञ में मरे हुए जीव स्वर्ग में जाते हैं और अग्नि में होम से देव तृप्त होते हैं।' वे पापी यह नहीं समझते कि यदि यज्ञ से मरे हुए स्वर्ग जाते हैं तो स्वर्ग के अभिलाषी स्वजन सम्बन्धियों को उसमें होम करना योग्य गिना जायगा। अथवा प्रचंड पाखंड के झूठे मार्ग में पड़े हुए भद्रिक परिणामी लोगों का इसमें क्या दोष है? इस विषय में वेद पाठक अपराधी है। इससे यदि मैं इस पापिष्ठ अति दुष्ट प्रवृत्तिवाले पाठक को मार दूं तो यज्ञ निमित्त में लाये हुए ये घोड़े जीते रहेंगे। ऐसा विचारकर उसने कठोर खूर से उसके छाती पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे तूं उसी समय प्राण मुक्त हुआ। और अति हिंसा की अभिलाषा के आधीन बनें अति पाप से पहले नरक के अन्दर घटालय (घड़े के समान स्थान में) नामक नरकावास में तूं नरक रूप में उत्पन्न हुआ, जब मुहूर्त मात्र में छह प्रकार की पर्याप्ति से वहाँ तूं पूर्ण शरीर वाला बना, तब किलकिलाट शब्द को करते अत्यन्त निर्दय, महाक्रूर बिभत्स रूप वाले और भयानक परमाधामी देव शीघ्रतापूर्वक वहाँ आयें, और अरे! दुःख भोगते तूं वज्र के घड़े में किसलिए रहा है, बाहर निकल! ऐसा कहकर वज्रमय संडासी द्वारा तेरे शरीर को खींचकर निकाला, उसके बाद करुण स्वर से चीख मारते तेरे शरीर को उन्होंने तीक्ष्ण शस्त्र से सूक्ष्म-सूक्ष्म टुकड़े करके काटा, अति सूक्ष्म टुकड़े करने के बाद फिर पारे के समान शरीर मिल गया, भय से कांपते और भागते तुझे उन्होंने सहसा पकड़ा उसके बाद तेरी इच्छा न होने पर भी तुझे पकाने के लिए नीचे जलती हुई तेज अग्नि वाले वज्र की कुंभि में जबरदस्ती डाला। और वहाँ जलते शरीर वाला प्यास से अत्यन्त दुःखी होता, तूं उनके सामने विरस शब्दों में कहने लगा कि-तुम्हीं माता पिता हो, भाई, स्वजन, - 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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