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श्री संवेगरंगशाला
महासेन राजा की कथा मेरे मन का भी हरण किया है। इसलिए कहो कि आप कौन हो? ऐसे प्रभाव से शोभित आपने आपके कुल को ऐसे अकार्य से मलिन क्यों किया? उसने भी कुछ हँसकर कहा-हे राजन्! मैंने शोभा और कलंक ये दो कार्य किये हैं वह सत्य है, परन्तु नगर के सर्व लोगों के समक्ष हरण करते तूं अपनी पत्नी की भी रक्षा नहीं कर सकता है
और अपयश की भी चिंता न करके तूंने तो एकमात्र कुल को कलंकित ही किया है। इस तरह हे मुग्ध! तूं अपने महान् कुल कलंक को नहीं देखता और उल्टे मेरे पुरुषार्थ को भी दोष रूप में मानता है। अथवा दूसरे के दोष देखने में मनुष्य हजार नेत्रवाला बनता है और पर्वत समान महान भी अपने दोष को जाति अंध (जन्म से अंध) के समान देखता नहीं है, इस तरह से तूंने सारे कुल को मलिन किया है, कि जिससे सुकृत्यरूपी बादल का समूह
तो भी वह निर्मल नहीं हो सकता है। हे भद्र! असाधारण पराक्रम बिना तेरे सदृश राजत्व केवल बोलने के लिए ही कहलाता है। तूं नाममात्र से ही राजा है। अथवा तो इसमें तेरा क्या दोष है? तेरे पूर्व पुरुष ही इस विषय में अपराधी हैं कि जिन्होंने असमर्थ होने पर भी तुझे राजा रूप में स्थापन किया है, अथवा हे राजन्! उनका भी क्या दोष है? विषयासक्त मनवाले तेरे जैसे कुमति वालों की ऐसी ही दशा होती है। यह सुनकर लज्जा से प्रदोषकाल के समान तेजहीन नेत्र कमल बन्द वाला राजा विचार करने लगा कि मेरे जीवन के पुरुषार्थ को तथा बल और बुद्धि के प्रकर्ष को धिक्कार है, कि मैंने पूर्व पुरुषों को भी कलंकित किया है। जघन्य मैंने केवल अपनी लघुता नहीं की, लेकिन महान् उपकारी विद्या गुरुजनों की भी लघुता करवाई है। ऐसे जन्म से भी क्या प्रयोजन? ऐसे जन्म लेने के बाद जीते रहने से भी क्या लाभ? कि जो अपने पूर्वजों की लेशमात्र भी लघुता (हल्कापन) हो ऐसे कार्य में प्रवृत्ति करें? इस पुरुष ने जो विषयों में मूढ़मति वाला आदि कहा है वह सब सत्य कहा है, अन्यथा मुझे ऐसी विडम्बना क्यों होती? इस पुरुष को शस्त्र नहीं लग सकते हैं तथा मंत्र-तंत्र में भी इसके सामने मेरी कुशलता नहीं चलेगी, मैं उद्योगी होने पर इसे जीत लूँ ऐसा श्रेष्ठ बल कहाँ मिलने वाला है? इससे अच्छा यह है कि अब तापसी दीक्षा लेना योग्य है क्योंकि वापिस जाकर नगर के लोगों को अपना मुँह किस तरह दिखलाऊँ?
इस तरह अति विषाद रूपी पिशाच से व्याकुल हुआ चित्तवाला राजा जैसे ही तलवार छोड़ने के लिए तैयारी करता है, उसके पहले, उस पुरुष ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये ।।२०।। और कहा कि-हे महाशय! शोक छोड़ दो, इन विविध क्रीड़ाओं से क्या हुआ यह मायावी इन्द्रजाल है, सत्य नहीं है, मैं पुरुष नहीं हूँ तथा मुझे तेरी स्त्री से कोई प्रयोजन भी नहीं है। हे राजन्! तेरा तापस मार्ग में जाने का पराक्रम सामान्य नहीं है, किन्तु इस प्रस्ताव द्वारा मुझे कहना है कि मैं देव हूँ और पूर्व स्नेह के कारण प्रथम देवलोक से तुझे प्रतिबोध करने के लिए आया हूँ। हे मित्र! तूं क्यों भूल गया है कि जिस पूर्वभव में यमुना नदी के प्रदेश में अनेक लक्षण युक्त शरीर वाला तूं हाथी था, वहाँ महान् राजा के समान सात अंग' से श्रेय, विषय में आसक्त, झरते मद के विस्तार वाला, रोषपूर्वक शत्रु हाथियों का नाश करने वाला, बहुत हाथियों के समूह से घिरा हुआ तूं उस स्थान में स्वेच्छानुसार घूमता फिरता था।
एक दिन हाथी के मांस को खाने की इच्छा वाले युवा भिल्लों ने तुझे देखा, इससे उन्होंने सांकल के बंधन बांधने आदि उपायों से और बाण के प्रहार से तेरे परिवार युक्त सारे हाथियों के समूह का नाश किया, तूंने तो अप्रमत्तत्ता से और भागने की कुशलता से, उनके उपाय रूपी पीड़ाओं को दूर से त्यागकर उनसे बचकर चिरकाल तक अपना रक्षण किया, परन्तु उसके बाद अन्य किसी दिन उन्होंने तुझे पकड़ने के लिए सरोवर में 1. राजा के पक्ष में स ' अंग - १. राजा, २. मंत्री, ३. मित्र, ४. भंडार, ५. देश, ६. वाहन, ७. सैन्य। इन सात अंग युक्त राज्य। हाथी के पक्ष में-चार पैर, सूंढ, पूच्छ और लिंग। इन सात अंग से श्रेष्ठ। 16
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