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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-कंडरीक की कथा हुआ सुनकर राजा वहाँ आया और संयम में स्थिर करने के लिए उसे वंदनकर इस तरह कहने लगा कि - आप एक ही धन्य हो, कृतपुण्य हो, और जीवन के फल को प्राप्त कर रहे हो कि जो आप श्री जिन कथित दीक्षा को निरतिचार रूप पालन करते हो, और दुर्गति का हेतुभूत कठोर बंधन रूप राज्य बंधन में पड़ा मैं कुछ भी धर्म कार्य नहीं कर सकता हूँ। ऐसा कहने पर भी वृक्ष के सामने कठोर दृष्टि से देखते वह जब कुछ भी नहीं बोला तब वैराग्य को धारण करते राजा ने फिर कहा कि - हे मूढ़ ! पूर्व में भी दीक्षा को स्वीकार करते तुझे मैंने बहुत रोका था और उस समय राज्य देता था। अब अपनी प्रतिज्ञा को खत्म करने वाला तृण से भी हल्के बने तुझे इस राज्य को देने पर क्या सुख होगा? ऐसा कहकर राजा ने सारा राज्य उसको दे दिया और स्वयं लोच कर उसका साधु वेश गृहण किया। उसके बाद स्वयं दीक्षा को स्वीकारकर गुरु महाराज के पास गया और पुनः वहाँ विधिपूर्वक दीक्षा को स्वीकारकर छट्ट (दो उपवास) के पारणे में शरीर के प्रतिकूल आहार लेने से पेट में कठोर दर्द उत्पन्न हुआ और मरकर सवार्थ सिद्ध में देव रूप में उत्पन्न हुआ। इधर कंडरीक अंतःपुर में गया, मंत्री, सामंत दंड नायक आदि सारे लोगों ने 'यह दीक्षा छोड़ने वाला पापी है' इस तरह तिरस्कार किया, विषयों की अत्यंत गृद्धि से प्रचुर रस वाले पानी और भोजन में आसक्त बना। इससे विशूचिका रोग उत्पन्न हुआ, अधूरा आयुष्य तोड़कर उपक्रम से मरकर वह रौद्रध्यान के कारण सातवीं नरक में गया। इस तरह विषयासक्त जीव ने विषयों की प्राप्ति किये बिना ही दुर्गति को प्राप्त की ।
इसलिए हे सुंदर! यहाँ बतलायें गये दोषों से दूषित पापी विषयों को विशेष प्रकार से छोड़कर आराधना में एक स्थिर मनवाला तूं निष्पाप निर्मल मन को धारण कर। इस तरह विषय द्वार को कहा, अब क्रमानुसार तीसर कषाय रूप प्रमाद द्वार को अल्प मात्र कहता हूँ ।। ७२६३ ।।
तीसरा कषाय प्रमाद का स्वरूप : - यद्यपि पूर्व में कषायों की बहुत व्याख्या और युक्तियों के समूह से कहा है, फिर भी वह अति दुर्जय होने से पुनः अल्प मात्र से कहते हैं । पिशाच के समान फिर से खेद कारक और अशुभ या असुख करने का एक व्यवसाय वाला यह दुष्ट कषाय जीव को विडम्बना कारक है। प्रथम प्रसन्नता को दिखाकर फिर अनिष्ट करके वह दुष्ट अध्यवसाय का जनक है, सिद्धि के सुख को रोकने वाला और परलोक में अनिष्ट की प्राप्ति कराने वाला है। कषाय सेवन करने वाला इस लोक में महासंकट में गिरता है। अति विपुल संपत्ति का नाश होता है और कर्त्तव्य से वंचित करता है । आश्चर्य की बात है कि केवल एक कषाय करने से पुरुष धर्मश्रुत यश को अथवा सभी गुण समूह को जलांजलि देकर नाश करता है। कषाय करने से इस जन्म में सर्व लोग में निंदा का पात्र बनता है और परलोक में जरा मरण से दुस्तर संसार बढ़ता है। फिर पुण्य, पाप को खेलने की चार गति संसार रूप अश्व को दौड़ने की भूमि में जीव गेंद के समान कषाय रूपी प्रेरक की मार खाते हुए भ्रमण करता है। दुष्ट कषाय निश्चय सर्व अवस्थाओं में जीवों का अखूट अनिष्ट करने वाला है, क्योंकि पूर्व मुनियों ने भी कहा है कि कषाय रूपी कटु वृक्ष के पुष्प और फल दोनों दुःखदायी हैं। पुष्प से कुपित हुआ पाप का ध्यान करता है और फल से पाप का आचरण करता है। (अर्थात् कषाय का चिंतन-ध्यान पुष्प है और कषाय का आचरण फल है।) श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि - निश्चय सर्व मनुष्यों का जो सुख और सर्व उत्तम देवों का भी जो सुख है, इससे भी अनंतगुणा सुख कषाय जीतनेवाले को होता है। इसीलिए लोक में पीड़ा कारक माना हुआ भी खल पुरुषों के आक्रोश, वध आदि ताप को उत्तम तपस्वी मुनि चंदन रस समान शीतल मानते हैं। धीर पुरुष, अज्ञ जीवों को सुलभ आक्रोश, वध करना, मारना और धर्म भ्रष्ट करना उसके उत्तरोत्तर अभाव में ही लाभ मानते हैं। अर्थात् धीर पुरुष अज्ञानी आत्मा पर आक्रोश आदि करना लाभ नहीं मानते हैं। अहो ! जले हुए कषायों
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