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समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार
श्री संवेगरंगशाला
को बार-बार जीतने पर भी उसे विजय करने की इच्छा वाले मुनियों में कषाय का पुनः उदय हो जाता है। क्योंकि सिद्धांत में कहा है कि
ग्यारहवें गए स्थान पर उपशम को प्राप्त हए गण के घातक कषाय जिन तल्य यथाख्यात चारित्र वाले को भी गिराता है तो पुनः शेष सराग चारित्र वाले में रहा कषाय उसका क्या नहीं करता है? कषाय से कलुषित जीव भयंकर चार गति रूप संसार समुद्र में जैसे खंडित जहाज पानी से भर जाता है वैसे पाप जल से भर जाता है। और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, कंदर्प, दर्प और मत्सर ये जीव के महा शत्रु हैं। निश्चय ये जीव के सर्व धन को हरण करने वाले और अनर्थों के करनेवाले हैं, इसलिए सम्यग् विवेक रूप प्रतिस्पर्धी सैन्य की रचना कर उसे आगे बढ़ने न दे इस प्रकार कर दुःख से हरण करने योग्य कषाय रूपी प्रचंड शत्रु सर्व जगत को पीड़ित करता है इसलिए वे धन्य है कि जो उन कषायों का सम्यग् हरणकर समता का आलिंगन करते हैं। जो इस संसार में धीरपुरुष भी काम और अर्थ के राग से पीड़ित होते हैं तब मैं मानता हूँ कि-निश्चय दुष्ट कषायों का विलास कारण है।
इसलिए किसी भी तरह तुम निश्चय करो कि जिससे कषायों का उदय न हो अथवा उदय होते ही उस कषाय सुरंग की उड़ती धूल के समान अंतर में ही समा जाय। यदि अन्य लोगों में कुशास्त्र रूपी आंधी से प्रेरित हुई कषाय रूपी अग्नि जलती हो तो भले जले। परंतु जो श्री जिनवचन रूपी जल से सिंचन किया हुआ मनुष्य जले वह अयोग्य है। क्योंकि उत्कट कषाय रोग के प्रकोप से उदय हए गाढ पीडा वाले को श्री जिन वचन रूपी रसायण से प्रशम रूपी आरोग्य प्रकट होता है। फैले हुए अहंकारी और अति भयंकर कषाय रूपी सों से घिरे हुए शरीर वाले अल्प सत्त्व वाले जीवों का रक्षण श्री जिनवचन रूपी महामंत्र से होता है। इसलिए जो दुर्जय महाशत्रु एक कषाय को ही जीत लेता है उसने सर्व जीतने योग्य शत्रु समूह को जीत लिया है। अतः कषाय रूपी चोरों का नाश करके मोह रूपी महान शेर को भगाकर ज्ञानादि मोक्ष मार्ग में चले हुए तूं भयंकर भयाटवी का उल्लंघन कर।
इस तरह कषाय द्वार को कहा है। अब क्रमानुसार निद्रा दोष से मुक्त होने के लिए निद्रा द्वार को यथास्थित कहता हूँ।
___ चौथा निद्रा प्रमाद का स्वरूप :-अदृश्य रूप वाले जगत में यह कोई निद्रारूपी राहु है, कि जो जीव रूपी चंद्र और सूर्य नहीं दिखे इस तरह ग्रहण करता है। इस निद्रा का क्षय हो जाये। इससे जीता हुआ भी मनुष्य मरे हुए के समान और मद से मत्त समान, मूर्च्छित के समान, शीघ्र सत्त्वरहित बन जाता है। जैसे स्वभाव से ही कुशल, सकल इन्द्रियों के समूह वाला भी मनुष्य निश्चय जहर का पान करके इन्द्रियों की शक्ति से रहित बनता है, वैसे निद्रा के आधीन बना भी वैसा ही बनता है। और अच्छी तरह आँखें बंद की हों, नाक से बार-बार घोर 'घुर-घुर' आवाज करता हो, फटे होठ में दिखते खुले दाँत से विकराल मुख के पोलापन वाला हो, खिसक गये वस्त्र वाला हो, अंग उपांग इधर-उधर घुमाता हो, लावण्य रहित और संज्ञा रहित सोये या मरे हुए के समान मानो या देखो तथा निद्राधीन पुरुष नींद में इधर-उधर शरीर चेष्टा करते सूक्ष्म और बादर अनेक जीवों का नाश करता है। निद्रा उद्यम में विघ्नरूप है, जहर की भयंकर बेचैनी के समान है, असभ्य प्रवृत्ति है और निद्रा महान् भय का प्रादुर्भाव है। निद्रा ज्ञान का अभाव है। सभी गुण समूह का परदा है और विवेक रूपी चंद्र को ढांकने वाला गाढ़ महान बादल समूह समान है। निद्रा इस लोक परलोक के उद्यम को रोकने वाली है और निश्चित सर्व अपायों का परम कारण है। इस कारण से ही निद्रा त्याग द्वारा अगडदत्त जीता रहा और अन्य मनुष्य निद्रा प्रमाद से मर गये ।।७२९८ ।। उसका प्रबंध इस प्रकार है :
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