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________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अगड़त की कथा अगड़दत्त आदि की कथा उज्जैन नगरी में जितशत्रु नामक राजा को मान्य अमोघरथ नाम से रथिक था । उसे यशोमती नामक स्त्री थी और अगड़दत्त नाम का पुत्र था, वह बालक ही था तब अमोघरथ मर गया था और उसकी आजीविका राजा ने दूसरे रथिक को दी ।। ७३०० ।। यशोमती उसे विलास करते और अपने पुत्र को कला-कौशल्य से सर्वथा रहित देखकर शोक से बार-बार रोने लगी । यह देखकर पुत्र ने माता को पूछा कि - हे माता ! तूं हमेशा क्यों रोती है ? अति आग्रह होने पर उसने रोने का कारण बतलाया। इससे पुत्र ने कहा कि -माता! क्या यहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो कि मुझे कलाएँ सिखा सके? उसने कहा कि - पुत्र ! यहाँ तो कोई नहीं है, परंतु दृढ़प्रहरी नाम का कौशाम्बी पुरी में तेरे पिता का मित्र है। इससे वह शीघ्र वहाँ उसके पास गया। उसने भी पुत्र के समान रखकर बाण, शस्त्र आदि कलाओं में अति कुशल बनाया, और अपनी विद्या दिखाने के लिए राजा के पास ले गया । अगड़दत्त ने बाण, शस्त्र आदि का सारा कौशल्य बतलाया, इससे सब लोग प्रसन्न हुए परंतु केवल एक राजा प्रसन्न नहीं हुआ, फिर भी उसने कहा कि - तुम्हें कौन सी आजीविका दूँ? उसे कहो। फिर अति नम्रता से मस्तक नमाकर अगड़दत्त ने कहा कि - यदि मुझे धन्यवाद नहीं दो अन्य दान से मुझे क्या प्रयोजन है? उस समय नगर के लोगों ने राजा को निवेदन किया कि—हे देव! इस समग्र नगर को गूढ़ प्रवृत्ति वाला कोई चोर लूट रहा है, इसलिए आप उसका निवारण करो। तब राजा ने नगर के कोतवाल से कहा कि - हे भद्र! तुम सात दिन के अंदर चोर को पकड़कर ले आओ। उसके बाद जब आँखें बंद कर नगर का कोतवाल कुछ भी नहीं बोला तब 'अब समय है' ऐसा समझ कर अगड़दत्त ने कहा कि - हे देव! कृपा करो । यह आदेश मुझे दो कि जिससे सात रात में चोर को कहीं पर से पकड़कर आपको सौंप दूँ। फिर राजा ने उसे आदेश दिया। वह राज दरबार से निकला और विविध वस्त्र धारण करता तथा साधु वेश धारक संन्यासी आदि की खोज करता था। चोर लोग प्रायः शून्य घर, सभा स्थान, आश्रम और देव कुलिका आदि स्थानों में रहते हैं, इसलिए गुप्तचर पुरुषों द्वारा में उन स्थानों को देखूं । ऐसा विचार करके सर्व स्थानों को सम्यक् प्रकार से खोजकर उस नगरी से निकला और एक उद्यान में पहुँचा । वहाँ मैले वस्त्रों को पहनकर एक आम्र वृक्ष के नीचे बैठकर चोर को पकड़ने के उपाय का चिंतन करता था। इतने में कहीं से आवाज करता हुआ एक परिव्राजक संन्यासी वहाँ आया और उस वृक्ष की शाखा तोड़कर उसका आसन बनाकर बैठा । पिंडली को बाँधकर बैठे हुए, ताड़ जैसी लम्बी जंघा वाले और क्रूर नेत्र वाले उसे देखकर अगड़दत्त ने विचार किया कि - यह चोर है। इतने में उसे उस परिव्राजक ने कहा कि - हे वत्स! तूं कहाँ से आया है? और किस कारण से भ्रमण करता है? उसने कहा कि - हे भगवंत ! उज्जैन से आया हूँ और निर्धन हूँ, इस कारण से भटक रहा हूँ मुझे आजीविका का कोई उपाय नहीं है। परिव्राजक ने कहा पुत्र ! यदि ऐसा ही है तो मैं तुझे धन दूँगा । अगड़दत्त ने कहा- हे स्वामी! आपने मेरे ऊपर महाकृपा की। इतने में सूर्य अस्त हो गया और परिव्राजक को अकार्य करने की इच्छा के समान संध्या भी सर्वत्र फैल गयी। वह संध्या पूर्ण होते ही अंधकार का समूह फैल गया तब त्रिदंड में से तीक्ष्ण धारवाली तलवार खींचकर शस्त्रादि से तैयार हुआ, और शीघ्र अगड़दत्त के साथ ही नगरी में गया तथा एक धनिक के घर में सेंध लगायी वहाँ से बहुत वस्तुएँ भर कर पेटियाँ बाहर निकालीं और अगड़दत्त को वहीं रखकर वह परिव्राजक देव-भवन में सोये हुए मनुष्यों को उठाकर उनको धन का लालच देकर वहाँ लाया। उन पेटियों को उनके द्वारा उठवाकर उनके साथ नगर से शीघ्र ही निकल गया और जीर्ण उद्यान में पहुँचा। वहाँ उसने उन पुरुषों और अगड़दत्त से स्नेहपूर्वक कहा कि - हे पुत्रों ! जब तक रात्री कुछ कम नहीं होती तब तक थोड़े समय यहीं सो जाओ। सभी ने स्वीकार किया और सभी गाढ़ निद्रा में श्री संवेगरंगशाला 306 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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