________________
समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अगड़त की कथा
श्री संवेगरंगशाला
सो गये। केवल मन में शंका वाला अगड़दत्त कपट निद्रा एक क्षण कर, वहाँ से निकलकर वृक्षों के समूह में छुप गया। सभी पुरुषों को निद्राधीन जानकर परिव्राजक ने उन सब को मार दिया और अगड़दत्त को भी मारने के लिए उसके स्थान पर गया, परंतु वहाँ नहीं मिलने से वह वन की घटा में उसे खोजने लगा, तब सामने आते चोर पर अगड़दत्त ने तलवार से प्रहार किया। फिर प्रहार की तीव्र वेदना से दुःखी शरीर वाले उसने कहा कि-हे पुत्र! अब मेरा जीवन प्रायः कर पूर्ण हो गया है, इससे मेरी तलवार को तूं स्वीकार कर और श्मशान के पीछे के भाग में जा। वहाँ चण्डी के मंदिर की दीवार के पास खडे होकर तं आवाज देना. जिससे उसके भोयरे में से मेरी बहन निकलेगी। उसे यह तलवार दिखाना जिससे वह तेरी पत्नी बनेगी और तुझे घर की लक्ष्मी बतायेगी।
उसके कहे अनुसार अगड़दत्त भी वहाँ भोयरे तक पहुँचा और वहाँ पाताल कन्या के समान मनोहर शरीर वाली एक युवती को देखा। उसने पूछा कि-तं कहाँ से आया है? तब अगडदत्त ने तलवार को बाहर निकालकर उसे बतलाया। इससे उसने अपने भाई का मरण जानकर और उसका शोक छुपाकर आदरपूर्वक नेत्रों वाली उसने कहा-हे सुभग! तेरा स्वागत करती हूँ। फिर उसे आसन दिया और अगड़दत्त शंकापूर्वक बैठा। उसके बाद उसने पूर्व में बनाई हुई बड़ी शिला रूपी यंत्र से युक्त दिव्य सिरहाने से शोभित पलंगादि की सर्व आदरपूर्वक तैयारी की और अगड़दत्त से कहा कि-महाभाग! इसमें क्षणवार आराम करो। वह उसमें बैठा, परंतु उसने ऐसा विचार किया कि-निश्चय यहाँ रहना अच्छा नहीं है। शायद! यह कपट न हो, इससे यहाँ जागृत रहूँ। फिर क्षण खड़ी रहकर यंत्र से शिला को नीचे गिराने के लिए वह वहाँ से निकल गयी और अगड़दत्त भी पलंग छोड़कर अन्य स्थान पर छुप गया। उसने कील खींचकर सहसा उस शिला को गिराया और वह शिला गिरते ही पलंग संपूर्ण रूप में टूट गया। फिर परम हर्ष से अतीव प्रसन्न हृदय वाली उसने कहा कि-हा! मेरे भाई का विनाश करने वाले पापी को ठीक मार दिया। तब हा! हा! दासी पत्री! मझे मारने वाला कौन है? ऐसा बोलते अगड़दत्त ने दौड़कर उसे चोटी से पकड़ा। तब उसने पैरों में गिरकर कहा कि-रक्षा करो! रक्षा करो! तब उसे पकड़कर राजा के चरणों में ले गया। उसके बाद उसने सारा वृत्तांत कहा। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उसे बड़ी आजीविका वाले पद पर स्थापन किया और लोगों ने उसे बहुत पूज्य रूप में स्वीकार किया, फिर उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गयी। वह कालक्रम से अपने नगर में गया, वहाँ के राजा ने सत्कार कर उसके पिता के स्थान पर स्थापित किया। इस तरह जागत और नींद वाले के गुण दोष को सम्यग रूप से जानकर इस भव और परभव के सुख की इच्छा करने वाला कौन निद्रा का सत्कार करे?
राजसेवा आदि अनेक प्रकार के इस जन्म के कार्य और स्वाध्याय. ध्यान आदि परजन्म के कार्यों का भी निद्रा घात करती है। शत्रु सोये हुए का मौका देखता है, उसमें सर्प डंख लगाता है, अग्नि का भोग बनता है और मित्र आदि 'बहुत सोने वाला' ऐसा कहकर हँसी करते हैं। अथवा गाढ निद्रा करने वाले के ऊपर चन्दुवे आदि में रहे छिपकली आदि जीवों का मूत्रादि सोये हुए के मुँह में गिरता है या गाढ़ नींद में सोये प्रमादी को क्षुद्र देवता भी उपद्रव करते हैं। पुरुष की चतुराई, बुद्धि का प्रकर्ष और निश्चय वह उत्तम विज्ञान आदि निद्रा से एक साथ में ही खत्म हो जाते हैं। और निद्रा अंधकार के समान सर्व भावों को अदृश्य-आवरण करने वाली है और इसके समान दूसरा अंधकार नहीं है। इसलिए ध्यान में विघ्नकारी निद्रा पर सम्यग् विजय करो, क्योंकि-श्री जिनेश्वर भगवान ने भी वत्स देश के राजा की बहन जयंती श्राविका को कहा था कि 'धर्मी' व्यक्ति को जागृत और अधर्मी को निद्रा में रहना श्रेयस्कर है। सोये हुए का ज्ञान सो जाता है, प्रमादी का ज्ञान शंका वाला और भूल वाला बनता है और जागृत, अप्रमादी का ज्ञान स्थिर और दृढ़ बनता है। और अजगर के समान जो सोता है उसका अमृत तुल्य
307
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org