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________________ परिकर्म द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला चन्दन का रस, दक्षिण दिशा का पवन और मदिरा, ये प्रत्येक तथा सब मिलकर भी सरागी को ही क्षोभित करते हैं, परन्तु हे चित्त! विषय के राग से विमुख हो जा, फिर तुझे ये क्या कर सकते हैं? इस संसार में बहुत दान देने से क्या? अथवा बहुत तप करने से क्या? बहुत बाह्य कष्टकारी क्रिया करने से भी क्या? और अधिक पढ़ने से भी क्या? हे मन! यदि तूं अपना हित समझता हो तो राग आदि के कारणों से निवृत्ति कर और वैराग्य के कारणों में रमणता प्राप्त कर ।।१८५०।। हे हृदय! तूं वैराग्य को छोड़कर विषय के संग को चाहता है, वह काले नाग के बिल के पास चंदन के काष्ठों से अनेक द्वारों वाला सुंदर घर बनाकर वहाँ मालती पुष्पों की शय्या में 'यहाँ सुख है' ऐसा समझकर निद्रा लेने की इच्छा करने के समान है। हे हृदय! यदि तूं निष्पाप और परिणाम से भी सुंदर ऐश्वर्य को चाहता है तो आत्मा में रहे सम्यग् ज्ञान रूपी रत्न को धारण कर। जब तक तेरे अंदर घोर अज्ञान अंधकार है, तब तक वह तुझे अन्धकारमय बनायेगा, इसलिए हे हृदय! तूं यदि आज भी जिन मत रूपी सूर्य को अंदर से प्रकट करे तो प्रकाश वाला होगा। हे हृदय! मैं मानता हूँ कि-मोह रूपी महा अंधकार से व्याप्त यह संसार रूपी विषम गुफा में से तुझे निकलने का उपाय ज्ञान दीपक के बिना अन्य कोई नहीं है। हे चित्त! द्रव्यादि जड़ का संग छोड़कर संवेग का आश्रय स्वीकार कर कि जिससे यह तेरी संसार की गांठ मूल में से टूट जाये। हे मूढ़ हृदय! सुख के लिए इच्छा करते हुए भी दुःखमय वैभव से क्या प्रयोजन है? अतः आत्मा को सन्तोष में स्थिर कर तूं स् सखी बन। विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए प्रकृति से क्लेश पैदा करता है, मिलने पर पुनः मोह उत्पन्न होता है और उसका नाश होने से अति संताप उत्पन्न होता है। इसलिए हे चित्त! इस समय दुर्गति जाने के मार्ग समान राजा, अग्नि और चौरों का साध्य उस विभूतियों के राग को तत्त्व से समझपूर्वक त्याग कर। हड्डी रूपी स्तम्भ धारण की हुई, स्थानस्थान पर नसों की रस्सी रूपी बन्धन से बांधी हुई, मांस चर्बी आदि के ऊपर चमड़ी ढांकने वाली, इन्द्रिय रूपी रखवाले से रक्षित और स्वकर्म रूपी बेड़ियों से जकड़ी हुइ जीव की जेल समान, केवल दुःखों का अनुभव करने के स्थान रूपी काया में भी हे मन! तूं मोह मत कर! सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य आदि विषयों प्रति राग रूपी मजबूत तन्तुओं से नित्यमेव चारों ओर से स्वयं अपने आप को गाढ़ आवेष्टित करता हुआ हे चित्त! रेशम के कीड़े समान तेरा छुटकारा किस तरह होगा? हे मूढ़! यह भी विचार कर कि-इस संसार में किसी भी स्थान पर जो वस्तु इन्द्रिय ग्राह्य है, वह स्थिर नहीं है। फिर भी यदि तूं वहाँ राग करता है तो हे मन! तूं ही मूढ़ है। संसार में उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं का समूह नियम से, स्वभाव से ही हाथी के बच्चे के कान समान अति चंचल है। इस प्रकार एक तो अपने अनभव से और दूसरा श्री जिनेश्वर देव के वचनों से भी जानकर, हे मन! क्षण मात्र भी तूं उसमें राग का बन्धन न कर, और हे चित्त! 'इस असार संसार में स्त्री ही सार है' ऐसे गलत भ्रम रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बने तुझे शान्ति कैसे होगी? क्योंकि इस जन्म या दूसरे जन्म में जीवों को जो तीव्र दुःख आते हैं उन दुःखों का निमित्त स्त्रियों के बिना अन्य कोई नहीं होता है। मैं मानता हूँ कि-मुख में मधुरता और परिणाम में भयंकरता को देखकर विधाता स्त्रियों के मस्तक पर सफेद बाल के बहाने राख डालते हैं। तथा हे मनभ्रमर! काम क्रीड़ा से आलसी स्त्रियाँ भी मुख रूपी कमल से विकसित, विशाल नेत्र रूपी पत्तों से अति सुशोभित, लावण्य रूपी जल से भीगी हुई, मस्तक के बाल रूपी भ्रमरों से व्याप्त, चारों ओर से 1. मुहमवत्तं पज्जत-दारुणतं च पेच्छिऊण विही । पलियच्छलेण मन्ने, जुवईण सिरे खिवइ छारं ||१८६६।। 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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